विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक 2019 : लेकिन इस बिल में महिला का संरक्षण कहां है?

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मुस्लिम औरतें तीन तलाक के खिलाफ अपने हक की झंडाबरदारी पूरी हिम्मत से करती आई हैं। उनकी कड़ी मेहनत से ही यह मुद्दा आम जन के बीच अपनी जगह बनाता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, फिर संसद तक बहस में आया और लोकसभा के बाद 30 जुलाई को राज्यसभा ने भी इससे जुड़ा बिल पास कर दिया। बिल का नाम मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2019 है। लेकिन सवाल यह है कि इस बिल में महिला का संरक्षण कहां है? सात बिंदुओं पर आधारित यह बिल अभी भी तीन तलाक बोलने वाले पति को तीन साल की सजा देने पर कायम है। यह अपराध संज्ञेय और गैर जमानती होगा।

इसका अर्थ है कि तीन तलाक बोलने वाले शौहर को पत्नी या उसके खून के रिश्तेदारों की शिकायत पर पुलिस फौरन जेल भेज देगी और उसे तीन साल तक की सजा दी जाएगी। बिल में खून के रिश्तेदारों की परिभाषा स्पष्ट नहीं है। खानदान के तमाम लोग ऐसे हो सकते हैं जो इस बात का फायदा उठाकर परिवार को परेशानी में डाल दें। बिल कहता है कि औरत को पति से अपने और बच्चे के लिए खर्च लेने का अधिकार होगा। लेकिन जब पति जेल चला जाएगा तो औरत-बच्चे का खर्च कौन देगा? किस तरह दिया जाएगा? यह भी साफ नहीं है कि औरत वह खर्च कैसे लेगी? उसका क्या तरीका होगा? क्या सरकार खर्च देगी? अगर सरकार उस दौरान परिवार को संरक्षण नहीं दे रही तो इस बिल का नाम संरक्षण क्यों?

बिल में सुलह-समझौता और मध्यस्थता की गुंजाइश कोर्ट के स्तर पर है, थाने के स्तर पर नहीं। इसका अंजाम यह होने वाला है कि पति अपनी जमानत के लिए वकील के चक्कर लगाएगा और औरत भरण-पोषण के लिए दर-दर भटकेगी। बिल के मुताबिक तलाक को साबित करने की जिम्मेदारी अभी भी औरत के ऊपर ही है। तीन तलाक बोलना आपराधिक कृत्य माना गया है, जबकि विवाह एक सिविल मामला है। हिंदू पुरुष भी एक से एक वाहियात कारणों से पत्नी को तलाक दे देते हैं, पर उन्हें जेल तो नहीं भेजा जाता। बहुत से हिंदू पुरुष जो हिंदू निजी कानून के विरुद्ध जाकर एक से ज्यादा शादियां किए हुए हैं या अपनी पत्नियों को छोड़कर जिम्मेदारियों से आजाद हैं, उन्हें भी इस तरह जेल तो नहीं भेजा जा रहा। वह अपराध अभी भी असंज्ञेय और जमानती है।

एक नजर देखने से ही लगता है कि बिल बहुत जल्दबाजी में बनाया गया है। जो व्याख्या हर बिंदु पर बिल में लिखी होनी चाहिए वह नहीं है। जमीनी तजुर्बे बताते हैं कि जब भी आदमी तीन तलाक देता है, वह औरत को फौरन घर से बेदखल कर देता है। सुझाव था कि पति की गैरमौजूदगी में पति के परिवार का कोई भी रिश्तेदार महिला को घर से बेदखल न कर सके, यह प्रावधान बिल में दर्ज हो। साथ ही जो पति बिना तलाक दिए अपनी पत्नी और बच्चों का खर्च उठाए बगैर उन्हें छोड़कर गायब रहते हैं, उन्हें भी बिल की गिरफ्त में लाया जाए। इन प्रावधानों को जोड़े बिना यह बिल औरत को किसी प्रकार का लाभ नहीं पहुंचाने जा रहा। औरत पर तिहरा बोझ पड़ेगा।

ऐसा मालूम पड़ता है कि यह बिल महज वोटों की गोलबंदी का प्रयास है और मुस्लिम कौम को सबक सिखाने का एक जरिया। पिछली बार बिल पास होने पर लोकसभा में जय श्रीराम के नारे लगे थे जो इसके राजनीतिक लाभ की ओर इशारा कर रहे थे। एक गलती कांग्रेस ने की थी शाहबानो के वक्त 1986 अधिनियम लाकर। दूसरी गलती बीजेपी कर रही है, औरत को सुने बिना ही कानून बनाकर। आखिर हमारा मकसद क्या है? देश से तलाक-ए-बिद्दत (फटाफट तलाक) का खात्मा। इसके लिए हमें उन तरीकों पर विचार करना चाहिए जिनसे यह समाप्त हो सकता है। इसके कुछ आसान उपाय ये हो सकते हैं-

1. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को ध्यान में रखते हुए सभी राज्यों में विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाया जाए और औरत की सुरक्षा के लिए तलाक के पंजीकरण को भी अनिवार्य कर दिया जाए।
2. उक्त पंजीकरण को सभी सरकारी योजनाओं से जोड़ा जाए। ऐसा न करने वाले को किसी योजना का लाभ न मिले। विदेश जाने की इजाजत भी न दी जाए।
3. निकाहनामा में तलाक-ए-बिद्दत से तलाक नहीं हो सकता, इसका अनिवार्य प्रावधान किया जाए।
4. तलाक-ए-बिद्दत को घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 में शामिल करके मजिस्ट्रेट को पावर दी जाए।
5. पति मजिस्ट्रेट के आदेश का पालन न करे तो उसके खिलाफ कार्यवाही का प्रावधान हो।
6. 1939 मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम में तलाक-ए-बिद्दत को जोड़ दिया जाए। 7. भारतीय दंड संहिता की धारा 498 में तीन तलाक जैसी क्रूरता को विशेष रूप से शामिल किया जाए।
8. तलाक-ए-बिद्दत देने वाले पति को मीडिएशन में लाया जाना अनिवार्य हो। मीडिएशन सेंटर्स की संख्या बढ़ाई जाए।
9. हर थाने में मीडिएशन के लिए प्रशिक्षित काउंसलर मौजूद हों।
10. यह सुविधा ग्रामीण स्तर तक पहुंचाई जाए।

ध्यान रहे, सती प्रथा के खिलाफ बंगाल सती रेग्युलेशन 1829 से लेकर सती निवारण अधिनियम 1987 तक आ जाने के बावजूद सती बनाए जाने की घटनाएं हाल-हाल तक सुनाई देती रही हैं। बाल विवाह पर कानून है, फिर भी हर साल हजारों बाल विवाह हो रहे हैं। ऐसे में तीन साल सजा का प्रावधान किसी बड़े बदलाव का संकेत नहीं है। सत्तारूढ़ दल की यह जिम्मेदारी थी कि वह समझदारी से काम लेता, जिद पर न अड़ता। बड़ी बात यह होती कि सारे सुझावों को शामिल करके एक बेहतरीन कानून बनाया जाता जो औरतों को इंसाफ देता और विरोध करने वाले दलों और मौलवियों की जुबान बंद कर देता। मगर ऐसा नहीं हुआ। जो कानून आ रहा है वह एक फरेब है, जिसे दिल तस्लीम नहीं कर पा रहा।

लेखक: नाइश हसन
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं