घाटी में चुनाव

   

इसे हम बहुत अहम परीक्षा भले ही न मानें, लेकिन जम्मू-कश्मीर में ब्लॉक विकास परिषद का चुनाव संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद केंद्र सरकार के लिए एक बड़ी परीक्षा तो था ही। बेशक, लोकतंत्र के ऐसे कई पैमाने हैं, जिन पर इन चुनावों को आसानी से खारिज भी किया जा सकता है।

यह कहा जा सकता है कि विपक्ष के तमाम छोटे-बड़े नेता जिस समय जेल में हों, ऐसे चुनाव को किसी भी तरह से पूर्ण नहीं माना जा सकता। इसे भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि एक भारतीय जनता पार्टी को छोड़ दें, तो एक सिरे से सभी दलों ने इन चुनावों का बहिष्कार किया था। अपनी जगह इन तर्कों में दम हो सकता है, लेकिन ये चुनाव जिस तरह से संपन्न हुए, वह अपने आप में जम्मू-कश्मीर के धरातल की कुछ और ही कहानी कहता है।

दिलचस्प बात यह है कि इन चुनावों के लिए न तो कोई राजनीतिक खींच-तान हुई, न बहुत ज्यादा प्रचार चला, सुरक्षा के कडे़ प्रबंध में कोई ढील भी नहीं दी गई, और इसके बावजूद 98 फीसदी से ज्यादा मतदान का होना यह बताता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए कश्मीर का अवाम न सिर्फ तैयार है, बल्कि इस मामले में वह शेष भारत से कहीं ज्यादा उत्साह दिखा रहा है। इन चुनावों में मतदाता चूंकि विभिन्न पंचायतों के सरपंच थे, इसलिए उन्हें पूरी सुरक्षा के बीच मतदान केंद्र तक लाया गया था, लेकिन उनकी भागीदारी ने यह तो साफ कर ही दिया कि अलगाववादी कश्मीर घाटी की जिस तरह की तस्वीर पेश करते हैं, निचले स्तर के जन-प्रतिनिधियों में वह सब निरर्थक दिखाई देता है।

जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में एक साथ हुए इस चुनाव के नतीजे कुछ वैसे ही आए, जैसी उम्मीद थी। भाजपा को छोड़ ज्यादातर प्रमुख राजनीतिक दलों ने चुनाव का बहिष्कार किया था, इसलिए ज्यादातर सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों के हाथ ही लगीं। वैसे यह कोई बड़ी बात भी नहीं है। पंचायतों और छोटे ग्रामीण व स्थानीय निकाय के चुनावों में अक्सर निर्दलीय उम्मीदवारों का पलड़ा भारी रहता है। ब्लॉक विकास परिषदों की सिर्फ 27 सीटें ही ऐसी थीं, जिन पर उम्मीदवार बिना किसी चुनौती के निर्विरोध चुनाव जीत गए।

जिन सीटों के लिए मतदान हुआ, उनमें से 217 पर निर्दलीय उम्मीदवार जीते। भाजपा चुनाव को लड़ने वाली अकेली पार्टी थी, फिर भी उसे सिर्फ 81 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। यह बताता है कि इस क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में भाजपा का जनाधार अभी भी सीमित है। हालांकि इस चुनाव में भाजपा को मिली सीटें या उसका जनाधार मुद्दा नहीं है, असली मुद्दा निचले स्तर के जन-प्रतिनिधियों की भागीदारी है, जो बहुत उम्मीद बंधाती है।

यह चुनाव जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थिति की बहाली की ओर पहला कदम भर है। पूरी तरह से स्थिति का सामान्य हो जाना तो उस समय माना जाएगा, जब सभी दलों की भागीदारी से चुनाव संपन्न होंगे। लेकिन उस दिशा में बढ़ने के लिहाज से यह चुनाव महत्वपूर्ण है। इस चुनाव ने सभी राजनीतिक दलों को यह एहसास दे दिया होगा कि जमीनी स्तर पर हालात कैसे हैं। इन चुनावों का संदेश उनके उन नेताओं तक भी पहुंचा होगा, जो जेलों के अंदर हैं या बाहर आ चुके हैं। उन्हें भी समझ में आ रहा होगा कि अगली बार अगर वे चुनाव में शामिल नहीं हुए, तो अप्रासंगिक भी हो सकते हैं।

साभार: नवभारत टाइम्स