तालिबान के साथ अटपटा समझौता

   

अमेरिका की तरफ से जलमई खलीलजाद अफगानिस्तान के तालिबान नेताओं से पिछले डेढ़-दो साल से जो बात कर रहे थे, वह अब खटाई में पड़ती दिखाई पड़ रही है, क्योंकि अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने उस पर दस्तखत करने से मना कर दिया है। अभी-अभी ताजा सूचना मिली है कि अगर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उस समझौते पर अंगूठा लगा दिया तो बेचारा पोंपिओ क्या करेगा ?

लेकिन सवाल यह है कि ट्रंप के दस्तखत के बावजूद क्या इस समझौते से अफगानिस्तान में शांति हो जाएगी ? इसका सीधा-सा जवाब यह है कि अफगानिस्तान की शांति से अमेरिका को क्या लेना-देना है ? उसने उसामा बिन लादेन को मारकर न्यूयार्क हमले का बदला निकाल लिया है और शीत युद्ध के दौरान काबुल पर छाई रुस की छाया को उड़ा दिया है। अब वह अफगानिस्तान में अरबों डाॅलर क्यों बहाए और हर साल अपने दर्जनों फौजियों को क्या मरवाए ?

ट्रंप का तो चुनावी नारा यही था कि वे अगर राष्ट्रपति बन गए तो वे अफगानिस्तान से अमेरिका का पिंड छुड़ाकर ही दम लेंगे। इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वे इस समझौते पर खुद ही अपने दस्तखत चिपका दें। अभी तक हमें क्या, अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और प्रधानमंत्री डाॅ. अब्दुल्ला को ही पता नहीं कि खलीलजाद और तालिबान के बीच किन-किन मुद्दों पर समझौता हुआ है।

सुना है कि गनी को समझौते का मूलपाठ अभी तक नहीं दिया गया है लेकिन माना जा रहा है कि अमेरिकी फौज 5 अफगान अड्डों को खाली करेगी, 135 दिनों में। साढ़े आठ हजार फौजी वापस जाएंगे। यह पता नहीं कि अफगानिस्तान में 28 सितंबर को होनेवाला राष्ट्रपति-चुनाव होगा या नहीं ? समझौते के बाद क्या वर्तमान सरकार हटेगी और उसकी जगह तालिबान की इस्लामी अमीरात आ जाएगी ?

यह भी पता नहीं कि तालिबान और गनी के सरकार के बीच सीधी बातचीत होगी या नहीं ? जो लोग पिछले 18 साल से तालिबान का विरोध कर रहे थे और हामिद करजई और गनी सरकार का साथ दे रहे थे, उनका क्या होगा ? तालिबान-विरोधी देशों के दूतावासों को क्या काबुल में अब बंद करना होगा ? जिन स्कूलों और कालेजों में आधुनिक पढ़ाई हो रही थी, उनका अब क्या होगा ? यदि इस समझौते से तालिबान खुश हैं तो लगभग रोजाना वे हमले क्यों कर रहे हैं ? अफगानिस्तान अब लोकतंत्र रहेगा या शरियातंत्र ?

इन सब सवालों को लेकर अमेरिकी कांग्रेस (संसद) की विदेश नीति कमेटी भी परेशान है। खलीलजाद को वह तीन बार उसके सामने पेश होने को कह चुकी है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जान बोल्टन भी परेशान हैं। यदि यह गोलमाल समझौता इसी तरह हो गया तो मानकर चलिए कि अफगानिस्तान एक बार फिर अराजकता का शिकार हो जाएगा। पाकिस्तान की मुसीबतें सबसे ज्यादा बढ़ेंगी। भारत भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक