पहले MTNL का मतलब होता था ‘मेरा टेलिफोन नहीं लगता’, आज कहा जाता है ‘मेरा टेलिफोन नहीं कटता’!

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पहले एमटीएनएल का मतलब होता था मेरा टेलिफोन नहीं लगता, आज कहा जाता है कि मेरा टेलिफोन नहीं कटता। जब न तो मोबइल फोन हुआ करते थे और न ही प्राइवेट कंपनियां इस धंधे में आयी थीं तब लोग बरसों तक, दशक से ज्यादा समय तक फोन लगने का इंतजार किया करते थे ।

वेटिंग लिस्ट लंबी और बेसब्री से सराबोर हुआ करती थी और लोग मंत्रियों की सिफारिश से या फिर पंजीकरण की भारी राशि दे कर आउट ऑफ टर्न फोन लिया करते थे। इसके बाद नयी नयी एक्सचेंज लगा कर क्षमता को बढ़ाया गया।

यह काम कई साल जारी रहा और क्षमता से भी कहीं ज्यादा कनैक्शन दिये गये मगर सर्विस खराब होती गयी, बिगड़ती गयी जिसके कारण फोन बीच में कटने लगे और बेवजह एंगेज रहने लगे। खराब फोन को ठीक करवाने के लिये ग्राहकों को कसरत करनी पड़ती थी।

बिल डिलिवरी लगभग ठप्प हो गयी और वेबसाइट से बिल लेना और 1500, 1501 सेवा से बिल राशि का पता लगाने में घंटों जूझना पड़ा क्योंकि कभी सिस्टम डाउन मिला तो कभी साइट को तेज बुखार हो गया। आखिर परेशान हो कर लोग एमटीएनएल के फोन कटवाने लगे।

उन्होंने जमा करायी सिक्यूरिटी राशि वापस लेने की परवाह नहीं की क्योंकि इसके लिये तो जंग जीतने जैसा संघर्ष करना और बड़ा दिल बना कर धीरज रखना जरूरी था। दूसरी तरफ निजी कंपनियों वाले एक कॉल करते ही घर पहुंच कर आधे घंटे में फोन क्नैक्शन लगा कर चालू कर रहे थे।

इसका असर हुआ कि एमटीएनएल का दायरा सिमटता गया मगर फिक्सड एक्सपेंडिचर और सैलरी का खर्च बढ़ता गया, घाटा भी नदी से बढ़ कर सागर बन गया। अब भारत सरकार के नीति आयोग ने कहा है कि और नहीं बस और नहीं, इतना घाटा सरकार वहन नहीं कर सकेगी, सरकार ने अब सफेद हाथी पालना बंद कर दिया है, इसलिये या तो इसे बेच दिया जाये या बंद किया जाये यानी मार दिया जाये या छोड़ दिया जाये।

सब जानते हैं कि बूढ़े घोड़े को कोई खरीदता नहीं और मरणासन्न शैय्या पर पड़े के साथ कोई न तो वफा करता है और न ही ज्यादा देर तक तीमारदारी करना चाहता है।

इसे अगर ऑक्सीजन पर जिंदा रखा जायेगा तो ग्राहकों के कष्ट बढ़ेंगे और अगर बंद किया गया तो बेरोजगारी का आलम सरकार के लिये सिर दर्द बन जायेगा। इसलिये सवाल यह है कि एमटीएनएल का क्या किया जाये।