इसे मुस्लिम समुदाय की एक सकारात्मक पहल कहा जा सकता है। ऐसा पहली बार होने जा रहा है जब भारत की शरिया अदालतों के काजी को भारतीय संविधान के उन अनुच्छेदों के बारे में जानकारी दी जाएगी, जिनका संबंध मुस्लिम समुदाय से है। शरिया अदालतों के लिए अब ‘अदालत’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जाएगा।
जो लोग काजी बनेंगे, उनकी ट्रेनिंग के दौरान पाठ्यक्रम में भारत का संविधान भी शामिल किया जाएगा। अभी तक काजी बनने वालों को इस्लामिक न्यायशास्त्र की जानकारी दी जाती थी। लंबे समय से ऐसी आवाजें उठती रही हैं कि एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी अदालतें देश की न्याय व्यवस्था के समानान्तर काम करती हैं।
प्रश्न उठता था कि क्या मुसलमान अपनी अलग न्याय व्यवस्था से चलते हैं? तो शरई अदालतों के बारे में फैले भ्रमों में सुधार लाने के लिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने ये नए कदम उठाए हैं। इनके जरिए वे देश में दारुल क़ज़ा की व्यवस्था की समाज में उसकी स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते हैं।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने लखनऊ में तीन दिवसीय दारुल कजा कांफ्रेंस का आयोजन किया। इसका मुख्य उद्देश्य था उन काजियों को सही दिशा में प्रशिक्षित करना जो इन अदालतों में बैठते हैं।
बोर्ड ने ये बात साफ़ कर दी कि दारुल कजा को हर भाषा में दारुल कज़ा ही बोला और लिखा जाए। इसकी जगह इस्लामी अदालत, शरई अदालत, शरिया कोर्ट जैसे शब्दों का प्रयोग न किया जाए।
बताते हैं ऐसा इस वजह से भी जरूरी था, क्योंकि इस्लामी अदालत लिखने और बोलने से उनके एक पूर्ण अदालत होने का संदेश जाता था। इस कारण दूसरे समुदायों में तमाम भ्रांतियां बन रही थीं। र ये भी महसूस किया जा रहा था कि ये अदालतें देश के अंदर मुसलमानों की अपनी अलग न्याय व्यवस्था चला रही हैं।
कांफ्रेंस में ये प्रस्ताव पारित किया गया था कि तमाम मदरसे और ऐसी संस्थाएं जहां पर काजी की पढ़ाई और ट्रेनिंग होती है, वहां उनके पाठ्यक्रम में भारत के संविधान की वो धाराएं शामिल की जाएं, जिनका वास्ता मुस्लिम समुदाय से हो।
ये एक बड़ा कदम है। इससे ऐसे सवालों पर विराम लगेगा कि क्या ये अदालतें भारत के संविधान से ऊपर हैं? बोर्ड की ताजा पहल से दारुल क़ज़ा के बारे में फैली तमाम भ्रांतियां कम होने की उम्मीद है। इसीलिए इसे एक सकारात्मक पहल माना गया है।
साभार- नवजीवन