अखिलेश- मायावती गठबंधन: बीजेपी की सिमट जायेगी राजनीतिक चादर!

,

   

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच लोकसभा चुनावों के लिए गठबंधन की खबरों ने राजनीति में नए समीकरणों को हवा दे दी है। कहा जा रहा है कि मायावती के दिल्ली आवास पर बसपा सुप्रीमो और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के मध्य हुई बातचीत में गठबंधन को अंतिम रूप दे दिया गया है।

दोनों पार्टी राज्य में कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेंगी, इसकी घोषणा संभवत: 15 जनवरी को मायावती के जन्म दिवस पर कर सकती है। इसी दिन अखिलेश यादव की सांसद पत्नी डिंपल यादव का जन्म दिन भी है। फिलहाल दोनों के 37-37 सीटों पर चुनाव लडऩे की बात की जा रही है।

चार सीटें अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल, निषाद पार्टी और अपना दल के कृष्णा पटेल गुट के लिए छोड़ी जा सकती हैं। यह गठबंधन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की अमेठी और सोनिया गांधी की रायबरेली सीट पर उम्मीदवार खड़ा नहीं करेगा। इससे इस संभावना को भी बल मिलता है कि चुनाव बाद कांग्रेस से गठजोड़ की उम्मीद भी जिंदा रखी जाएगी।

2014 के आम चुनाव में नरेन्द्र मोदी की लहर में भाजपा गठबंधन ने 80 में से 73 सीट जीतकर विपक्ष को समेट दिया था। बसपा का तो खाता भी नहीं खुल पाया था।

सपा भी पांच सीटों पर सिमट गई थी। इन पर भी यादव खानदान के उम्मीदवार ही जीते थे। इसके बाद ही गठबंधन नहीं करने से हुआ नुकसान सपा-बसपा की समझ में आया था। इसका असर बाद में राज्य में हुए उपचुनावों में दिखा।

दोनों मिलकर लड़े तो मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के गोरखपुर और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की फूलपुर संसदीय सीटों पर बड़ी जीत हासिल हुई। यों भी देखा जाए तो 2014 में सपा (22.3%), बसपा (19.8%) तथा राष्ट्रीय लोकदल (0.09% ) को मिले मतों को जोड़ा जाए तो भाजपा को मिले 42.6 प्रतिशत वोटों से अधिक बैठता है।

इन दलों में हुए मत विभाजन का ही बड़ा लाभ भाजपा उठा ले गई थी। ताजा गठबंधन ने प्रधानमंत्री समेत भाजपा के बड़े नेताओं ही नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी चिंता में डाल दिया है।

ताजा सर्वे की रिपोर्ट भी सत्तारूढ़ दल को सीटों में खासी कमी बता रही है। फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में भी बसपा का प्रदर्शन सुधरा है। आम चुनाव में इन राज्यों में भी कुछ सीटों पर नए गठबंधन का असर पड़ेगा।

सबसे बड़ी बात यूपी में भाजपा की सीटें घटती हैं तो फिर उतनी सीटों की भरपाई अन्य राज्यों से होना मुश्किल होगा। राजनीतिक विश्लेषक अभी से 2019 में त्रिशंकु लोकसभा की बात करने लगे हैं। एनडीए, यूपीए और तीसरा मोर्चा किसी को भी बहुमत मिलता नहीं दिखता।

ऐसी स्थिति में क्षेत्रीय दलों की दावेदारी महत्वपूर्ण हो जाएगी। एनडीए सरकार ने इसी के मद्देनजर पार्टियों की घेराबंदी भी शुरू कर दी है। हाल ही 2012-16 के बीच उत्तर प्रदेश में हुए खनन घोटाले को लेकर की गई सीबीआइ के छापेमारी और रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ मनी लाँड्रिंग जांच के मामले में जांच एजेंसी की कार्रवाई को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा गरम है कि केन्द्र सरकार की दबाव की नीति के चलते ही जांच एजेंसियों को सक्रिय किया गया है।

शनिवार को जिस तरह यूपी में १४ स्थानों पर सीबीआइ ने छापे मारे थे। अखिलेश यादव ने आरोप लगाया है कि केन्द्र सरकार राजनीतिक उद्देश्यों के लिए जांच एजेंसी का गलत इस्तेमाल कर रही है।

उधर शनिवार को ही वाड्रा के सहयोगी मनोज अरोड़ा के मामले में प्रवर्तन निदेशालय ने दिल्ली की एक कोर्ट में बताया कि हवाले की रकम से लंदन में १९ लाख पौंड का जो फ्लैट खरीदा गया उसके परोक्ष मालिक रॉबर्ट वाड्रा ही हैं।

जांच एजेंसियां बेशक तथ्यों के आधार पर ही कार्रवाई करती हैं, लेकिन ऐसे समय जबकि आम चुनाव सिर पर हैं, इनकी गतिविधियों में तेजी आना, राजनीतिक शंकाएं जताने का अवसर तो देती ही हैं।

आम चुनाव से पूर्व और क्या-क्या खुलासे होते हैं, कितने नए गठबंधन होते हैं, दक्षिण में चंद्रशेखर राव, चंद्रबाबू नायडू, स्टालिन तो पूर्व में ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और नीतीश कुमार अंतिम रूप से किसके साथ जाने का फैसला करते हैं, यह देखना रोचक होगा।