अर्थव्यवस्था संकट के बीच जम्मू-कश्मीर में आगे कैसे होगा विकास

   

पिछले दिनों संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने कश्मीर और अनुच्छेद 370 पर दिए अपने भाषण में कहा- ‘अनुच्छेद 370 के कारण कश्मीर घाटी के लोग गुरबत में रह रहे थे।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि 370 खत्म होने से प्रदेश का विकास होगा और लोगों को रोजगार मिलेगा। आइए देखें, अब तक यानी 5 अगस्त, 2019 तक, जब अनुच्छेद 370 लागू था, कश्मीर के विकास संबंधी आंकड़े क्या दर्शाते हैं। जम्मू-कश्मीर न केवल मानव विकास सूचकांकों में अन्य राज्यों के साथ कदम मिलाकर चलता रहा है, बल्कि साक्षरता, औसत आयु, पांच साल तक के बच्चों की मृत्यु दर, स्कूली शिक्षा, न्यूनतम मजदूरी आदि कई संकेतकों में वह उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और बहु-प्रचारित विकास मॉडल वाले राज्य गुजरात से बेहतर स्थिति में रहा है।

गरीबी रेखा के सरकारी आंकड़ों को देखें तो पूरे देश में 21 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जबकि जम्मू-कश्मीर में केवल 10 प्रतिशत लोग ही गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करते हैं। 2001 में प्रदेश की साक्षरता दर 55.52 फीसदी थी जो 2011 में बढ़कर 68.74 हो गई। जहां तक महिलाओं द्वारा अपने बैंक खाते खुलवाने का प्रश्न है, अखिल भारतीय स्तर पर यह संख्या 2005-06 में 15.5 प्रतिशत थी, जो 2015-16 में बढ़कर 53 प्रतिशत हो गई, जबकि जम्मू-कश्मीर में यह 22 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई जो कि गुजरात के समान है और कई उत्तर भारतीय राज्यों से ज्यादा है। गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर में 57 प्रतिशत जनता करती है, जबकि गुजरात में यह आंकड़ा मात्र 46.9 है। 5 वर्ष से कम आयु की औसत शिशु मृत्यु दर जम्मू-कश्मीर में 35 प्रति हजार है जबकि गुजरात में 36.5 प्रति हजार। इसी तरह बिजली, स्वच्छ पेयजल, साफ-सफाई और खाना बनाने में पर्यावरण-अनुकूल ईंधन के इस्तेमाल में भी जम्मू-कश्मीर छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे कई राज्यों से कहीं बेहतर है।
यह तब है जब पिछले वर्षों में अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे विशेष दर्जा वाले राज्यों के मुकाबले जम्मू-कश्मीर को दी गई केंद्रीय सहायता एक-तिहाई से भी कम रही है। इसलिए यह कहना कि अनुच्छेद 370 के कारण जम्मू-कश्मीर में विकास अवरुद्ध रहा है, गलत है। बल्कि जम्मू-कश्मीर ने अपने तमाम राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों और सीमा पार से आतंकी घुसपैठ के बावजूद कई हिंदीभाषी राज्यों से बेहतर प्रदर्शन करके दिखाया है। इसके पीछे, सबसे बड़ा कारण शेख अब्दुल्ला द्वारा राज्य में भूमि सुधारों को लागू करना है, जिससे साधारण जनता की आमदनी बढ़ी और उसके परिणाम स्वरूप सारे विकास संकेतकों में सुधार हुआ। भारत में वामपंथी शासन वाले राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और कुछ हद तक कर्नाटक को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य में भूमि सुधार लागू नहीं किए गए। इसके विपरीत शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में सबसे पहले जम्मू-कश्मीर में जमीदारों की जमीनें बिना उनको कोई मुआवजा दिए किसानों को बांटी गई।
इससे पहले राज्य के कुल सिंचित क्षेत्र का अधिकांश भाग महाराजा और उनके चेले-चपाटों के हाथ में था। शेख अब्दुल्ला के प्रयासों के कारण ही जम्मू-कश्मीर में मात्र दो प्रतिशत से कम परिवार भूमिहीन हैं जबकि देश के अन्य भागों में कुल ग्रामीण परिवारों का एक तिहाई हिस्सा भूमिहीनों का है। यह संभव हो पाया अनुच्छेद 370 के कारण, जिसके चलते जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के दायरे से कुछ हद तक बाहर रहने का विशेषाधिकार हासिल था। शेष भारत में कानून था कि सरकार जमींदारों को मुआवजा दिए बिना उनकी जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती थी। 26 मार्च, 1952 को जम्मू-कश्मीर संविधान सभा ने बिना किसी मुआवजे के सभी बड़ी-बड़ी जागीरें जब्त कर लीं। यह नीति कांग्रेस और केंद्र सरकार की नीति के भी उलट थी।

भूमि-सुधारों का असर राज्य के सामाजिक ताने-बाने और भूमि वितरण पर तो पड़ा ही, इससे वहां आय की असमानताओं पर भी थोड़ा अंकुश लगा। 2010-11 में जम्मू-कश्मीर में ग्रामीण गरीबी अनुपात 8.1 प्रतिशत था, जबकि पूरे देश के लिए यह 33.8 फीसदी था। जम्मू-कश्मीर राज्य में भारत के कुल सेब उत्पादन का 77 प्रतिशत पैदा होता है। आम लोगों की धारणा यह है कि जम्मू-कश्मीर में पर्यटन के अलावा कुछ नहीं है जबकि यहां कई प्रकार के खनिज काफी बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं। जैसे चूना पत्थर, संगमरमर, जिप्सम, ग्रेनाइट, बॉक्साइट, डोलोमाइट, कोयला, सीसा इत्यादि। देश के उद्योगपतियों की नजरें इन पर हैं। उन्हें कश्मीर सोने की खान लग रहा है। कश्मीर की जमीन की उन्हें बड़ी फिक्र है, कश्मीरियों की नहीं।

आज जब कश्मीर के विकास के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं, तब प्रश्न उठता है कि कश्मीर को छोड़कर भारत के अन्य भागों में पूंजी-निवेश, रोजगार और तथाकथित विकास का हाल कैसा है? सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ऊपर है। ऑटोमोबाइल सेक्टर का कहना है कि मंदी के कारण उसे 3 लाख 50 हजार श्रमिकों की छंटनी करनी होगी। मोबाइल हैंडसेट बनाने वाली कंपनियां भी यही करने जा रही हैं। मंदी का आलम यह है कि 5 रुपये के बिस्कुट के पैकेट बेचने वाली पार्ले ने 10,000 मजदूरों को निकालने की धमकी दी है। शिवसेना ने हाल ही में केंद्र सरकार पर आरोप लगाया है कि पिछले वर्षों की आर्थिक-औद्योगिक नीतियों के कारण लगभग 2 करोड़ नौकरियां खत्म हो चुकी हैं।

जब हर जगह तमाम छोटे-बड़े कारखाने बंद हो रहे हों तो यह उम्मीद करना कि कश्मीर में नए कारखाने खुलने वाले हैं, एक दिवास्वप्न ही हो सकता है। पिछले 5 वर्षों में पूरे भारत में एक भी नया सरकारी विश्वविद्यालय नहीं खुला, एकाध नमूनों को छोड़कर एक भी नई रेलगाड़ी नहीं चली, एक भी नए हवाई अड्डे की स्थापना नहीं हुई। पूरे देश में जब कोई विकास नहीं हुआ तो भला जम्मू-कश्मीर में विकास कैसे संभव है, जब देश के कर्ता-धर्ता हर जगह एक से ही होंगे?

लेखक: अजेय कुमार
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं
स्रोत: नवभारत टाइम्स