इस बार बमबारी के डर के बिना फसल काट रहा जम्मू-कश्मीर का सीमावर्ती गांव

   

जम्मू, 31 मार्च (101रिपोर्टर्स)। जम्मू के कृषि क्षेत्रों में किसानों की ओर से एक लोक गीत गाया जा रहा है, जिसमें वह कह रहे हैं, जदे लोग दे जांदेने इत्थे कुर्बानियां, दुनिया ची रेंदिया ने उंदेया निशानियां। इसका अर्थ है, जो लोग बलिदान देते हैं वे उनका जीवन समाप्त होने के बाद दुनिया द्वारा याद किए जाते हैं।

हालांकि, खेतों में गायन की यह परंपरा सुचेतगढ़ गांव तक ही सीमित है, जो जम्मू के आरएस पोरा सेक्टर में अंतर्राष्ट्रीय सीमा के साथ पाकिस्तान से चंद कदमों की दूरी पर है। इस गांव में 200 से अधिक घर हैं। यहां सीमा पार बम धमाकों ने खेती को जीवन के लिए खतरे वाला काम बना दिया है।

हालांकि, इस साल चीजें अलग दिख रही हैं। पिछले महीने भारत और पाकिस्तान ने युद्ध विराम की घोषणा की। यह कई दशकों में पहली बार है कि मार्च से अप्रैल के बीच फसल कटाई के मौसम के दौरान यहां एक युद्धविराम की स्थिति पर सहमति सुनिश्चित हुई है। रमजान के पवित्र महीने 2018 के दौरान, पहले भी युद्ध विराम की घोषणा की गई थी, लेकिन यह अल्पकालिक साबित हुई और लंबे समय तक नहीं टिक पाई।

वैसे तो भारत और पाकिस्तान ने नवंबर 2003 में युद्ध विराम संधि पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन यह जमीनी स्तर पर धराशायी हो गई, खासकर 2008 के आतंकी हमलों के बाद संधि का औचित्य ही नहीं रह गया।

इस समझौते के इतिहास को देखते हुए, यह कहना मुश्किल है कि नवीनतम युद्ध विराम कितने समय तक चलेगा, लेकिन स्थानीय लोग इसे नई सुबह के रूप में मान रहे हैं। पिछले कुछ हफ्तों से सुचेतगढ़ में असामान्य रूप से शांति है। यहां अब बंदूकों और मोर्टार के गोलों की आवाज के बजाय पक्षियों के चहचहाने की आवाज आती है।

स्थानीय लोग बिना किसी डर के अपनी फसलों को निहारने और अच्छे उत्पादन की उम्मीद में अपने खेतों में जा रहे हैं।

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, सुचेतगढ़ में 454 हेक्टेयर भूमि खेती के अधीन है और इसका उपयोग ज्यादातर बासमती चावल और मक्का उगाने के लिए किया जाता है।

स्थानीय निवासी मधु कुमारी ने सकारात्मक भावना के साथ कहा, हम यह महसूस कर रहे हैं कि कोई भी आपको मारने वाला (सीमा पार से हमला) नहीं है।

उनके परिवार के पास चार एकड़ कृषि भूमि है, जो कि सीमा के सबसे करीब है, जिसे स्थानीय लोग जीरो लाइन कहते हैं।

सीमा पर खेती किस तरह की परिस्थिति में की जाती है, उसका वर्णन करते हुए कुमारी के पति भगाराम ने बताया कि सुचेतगढ़ के 20 से अधिक निवासियों ने संघर्ष विराम उल्लंघन में अपनी जान गंवाई है, लेकिन अभी तक खेत पर काम करते समय किसी की भी मौत नहीं हुई है।

61 वर्षीय भगाराम ने कहा, लेकिन मेरे बचपन से लेकर अभी तक ऐसा एक भी साल नहीं गुजरा है, जब कटाई के दौरान एक डरावना माहौल न रहा हो। हर समय हमारे सिर के ऊपर एक तलवार लटकती रहती थी कि न जाने कब तोप का एक गोला हमें मार सकता है।

2018 में एक मोर्टार शेल स्थानीय निवासी अविनाश कुमार से कुछ मीटर दूर गिरी थी। गनीमत रही कि वह बच गए। उस साल सीमा पार से हमलों के बाद जो स्थिति बनी थी, वह 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान पैदा हुई स्थिति से भी बदतर थी। सीमावर्ती गांवों के निवासियों ने उस विपरीत और खतरनाक परिस्थिति के बारे में भी बातचीत की।

हमले में बाल-बाल बचे युवा किसान अविनाश कुमार ने कहा, मुझे याद है कि वह फरवरी का महीना था। मेरे पिता की तबीयत ठीक नहीं थी। इसलिए मैं खेत में काम करने के लिए गया, क्योंकि फसल का मौसम एक महीना ही दूर था। अचानक मैंने एक जोरदार आवाज सुनी और हवा के तेज झोंके ने मुझे एक कोने में फेंक दिया। मैंने आश्रय लेने के लिए चारों ओर रेंगने की कोशिश की। एक घंटे के भीतर, हम सभी को एक सरकारी बंकर में ले जाया गया और बाद में एक सुरक्षित घर में स्थानांतरित कर दिया गया। हमारी भूमि और फसल सब कुछ नष्ट हो गया था।

यह एक ड्रिल है, जिसकी सुचेतगढ़ के निवासियों को आदत हो गई है। जब भी सेनाओं के बीच सीमा पार गोलीबारी होने लगती होती है तो उन्हें अपने खेतों और घरों से भागना पड़ता है और सरकारी सुरक्षित घरों में शरण लेनी पड़ती है। जब तनाव कम हो जाता है, तो वे अपने जर्जर घरों और खेतों में लौट आते हैं।

किसान तालिब हुसैन ने बताया कि 2018 में सीमा पार गोलीबारी के बाद उनकी कृषि भूमि को भी काफी नुकसान पहुंचा है। हुसैन ने कहा कि उनके अपने खेत उनके लिए मौत का कुआं बन गए हैं।

किसान हुसैन ने कहा, हम फसलों की बुवाई के लिए अनिच्छुक थे और फिर इसके बाद हम फसल काटने में भी संकोच कर रहे थे। उस वर्ष उन्हें 2 लाख रुपये से अधिक का नुकसान उठाना पड़ा, क्योंकि उनकी फसल हिंसा में क्षतिग्रस्त हो गई थी।

सुचेतगढ़ में खेती के लिए भूमि भी जहरीली होती जा रही है। बमबारी ने खेतों में जहरीले अवशेषों को पीछे छोड़ दिया है, जिससे खेती के लिए योग्य और आदर्श माने जाने वाले अधिकांश स्थानों की उपजाऊ शक्ति भी कमजोर हो गई है। जब आप खेतों का दौरा करते हैं, तो आपको यहां एक खराब गंध का अहसास भी होता है।

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, पूरे जम्मू-कश्मीर में हर साल गोलाबारी के कारण अनुमानित 17,000 हेक्टेयर भूमि पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है और फसलें नष्ट हो जाती हैं।

सुचेतगढ़ निवासी विनय कुमार अपनी फसलों को खोने के दर्द को अच्छी तरह से जानते हैं। वह 2018 में पाकिस्तान की ओर से हुई भारी गोलाबारी के बाद अपनी दो एकड़ भूमि पर कोई भी फसल नहीं उगा पाए थे। यह वो समय था, जब वह अच्छी फसल की उम्मीद कर रहे थे। यही नहीं भूमि को गोलीबारी से इतना नुकसान हुआ कि वह अगे साल भी कोई फसल नहीं हो सके। विनय ने बताया कि उनकी कृषि भूमि एक जले हुए पाउडर केग की तीखी गंध छोड़ रही थी।

(लेखक श्रीनगर के स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101 रिपोर्टर्स डॉट कॉम के सदस्य हैं।)

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