कश्मीरः जुबान प्यारी या जान ?

   

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच फ्रांस में हुई भेंट अगर इमरान खान ने देखी होगी तो पता नहीं उन पर क्या गुजरी होगी ? ट्रंप ने साफ-साफ कह दिया है कि उनके द्वारा बीच-बचाव अनावश्यक है। भारत और पाक बातचीत से अपना मामला खुद सुलझा लेंगे।

याने इमरान खान को जो थोड़ी-बहुत आशा अमेरिका से बंधी थी, वह भी अब हवा हो गई है। इस्लामी देशों ने पहले ही कश्मीर पर पाकिस्तान को ठेंगा दिखा दिया है लेकिन अफगानिस्तान के बहाने पाकिस्तान ने अमेरिका को अपने लिए अटका रखा था, वह सहारा भी ढह गया।

अब सिर्फ चीन रह गया है लेकिन चीन एक अहसानमंद राष्ट्र है। उसे पाकिस्तान ने कश्मीर की जो 5000 वर्ग मील जमीन 1963 में भेंट की थी, उसका अहसान अब वह दबी जुबान से चुका रहा है। चीन को पता है कि उसके हांगकांग और सिंक्यांग में जो दशा है, वह कश्मीर के मुकाबले कई गुना बदतर है। यह गनीमत है कि इन दोनों मामलों को भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठा रहा है। कश्मीर के सवाल पर यों ही सारी दुनिया भारत के साथ दिखाई पड़ रही है।

ऐसी स्थिति में इमरान खान का बौखला जाना स्वाभाविक है। उन्होंने परमाणु-युद्ध पर भी उंगली रख दी और कश्मीर के लिए आखिरी सांस तक लड़ने का ऐलान कर दिया। मैं उनकी मजबूरी समझता हूं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका प्रधानमंत्री की कुर्सी में बने रहना मुश्किल हो जाता लेकिन अब बेहतर होगा कि पाकिस्तान यथार्थ को स्वीकार करे और वह सब कुछ करने से बाज़ आए, जिसके कारण कश्मीर में खून की नदियां बहने लगें। यदि कश्मीर में हिंसा भड़काई जाएगी तो फौजी प्रतिहिंसा किसी भी हद तक पहुंच सकती है। यह बहुत दुखद होगा।

यह ठीक है कि कश्मीर में 5 अगस्त को जो कुछ हुआ है, उसे आम कश्मीरी का रत्तीभर भी नुकसान नहीं होगा। हां, पाकिस्तान और कुछ कश्मीरी नेताओं का धंधा जरुर बंद हो जाएगा। आम कश्मीरी का खून न बहे यह इतना जरुरी है कि उसके लिए यदि कुछ दिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्थगित हो जाए तो हो जाए। कश्मीरियों की जान ज्यादा प्यारी है या नेताओं को अपनी जुबान ज्यादा प्यारी है? फिर भी सरकार को हर कश्मीरी के लिए ज्यादा से ज्यादा सुविधा जुटानी चाहिए तक वह तहे-दिल से यह समझे कि जो हुआ है, वह उसके लिए बेहतर हुआ है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक