कांग्रेस जब प्रदर्शन और पर्सेप्शन दोनों में ही अजेय थी, तब उत्तर प्रदेश में उसका विजय रथ चौधरी चरण सिंह ने रोका था। विरासत में मिली सियासत की चमक दो दशक से अधिक समय तक अजित सिंह को भी रोशन करती रही। अब इस चौधराहट की लौ मंद पड़ती जा रही है। कभी वेस्ट यूपी की सियासत का सेंटर रहा चौधरी कुनबा आज सीटों के लिए दूसरों दल के दरवाजे खुद खटखटाने को मजबूर है।
यूपी के साथ ही केंद्र में भी विपक्ष को सत्ता का स्वाद चखाने में चौधरी चरण सिंह की अहम भूमिका रही। 1967 में कांग्रेस तक को तोड़कर वह यूपी के सीएम बने थे। 1969 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी भारतीय क्रांति दल ने 98 सीटें जीतीं और वह दोबारा सीएम की कुर्सी तक पहुंचे। इमरजेंसी के बाद इंदिरा विरोध की लहर में बनी सरकार में उपप्रधानमंत्री और बाद में थोड़े समय के लिए ही सही प्रधानमंत्री की कुर्सी भी चरण सिंह ने संभाली।
सत्ता में बनी थी उनकी पूछ
1987 में जब चौधरी चरण सिंह की मृत्यु हुई, तब भारतीय लोकदल के सूबे में 84 विधायक थे। यह संख्या बेटे अजित सिंह और शिष्य मुलायम सिंह यादव की महत्वाकांक्षा में बंट गई। अजित सिंह ने जनता दल ‘ए’ बनाई और 1989 में फिर जनता दल का हिस्सा हो गए। हालांकि, सत्ता में उनकी पूछ बनी रही और वह वी.पी. सिंह और फिर नरसिंहा राव सरकार में केंद्रीय मंत्री बने।
…और गिरता गया रुतबा
अजित 1999 की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और 2009 की कांग्रेस सरकार में भी केंद्रीय मंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए, लेकिन इस दौर में उनकी पार्टियों के बदलते नाम की तरह जनता भी उनसे दूर जाती रही। उनकी अगुवाई में विधानसभा में आरएलडी का श्रेष्ठ प्रदर्शन 2002 में 16 सीट का रहा। तब उनका मुकाबला बीजेपी से था। 2009 में बीजेपी के साथ ही उन्होंने 5 लोकसभा सीटें जीती थीं। 2012 में कांग्रेस के साथ मिल विधानसभा चुनाव लड़ा और 9 पर सिमट गए। अजित सिंह के दुर्दिन शुरू हुए 2014 में। लोकसभा में खाता नहीं खुला। 2017 में एक विधानसभा सीट छपरौली की जीती। वह विधायक भी बीजेपी में चला गया।