चुनाव में टकरा रहे हैं राष्ट्रवाद के दो रूप

   

इस बार के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रवाद एक अहम मुद्दा है। चुनावी मैदान में एक दल वह है, जिसके लिए राष्ट्रवाद सीमा पर आधारित है, तो दूसरा दल वह है जिसका राष्ट्रवाद को भारत की विविधता से जुड़कर अंग्रेजी हुकूमत के विरोधस्वरूप विकसित हुआ है। ऐतिहासिक रूप से एक दल का राष्ट्रवाद नया है, जबकि दूसरे का स्वाधीनता संघर्ष जैसा पुराना। लेकिन पहले प्रकार के राष्ट्रवाद की शुरुआत भी स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही हुई थी। दोनों प्रकार के राष्ट्रवाद अलग-अलग हैं।

भौगोलिक सीमाओं पर आधारित होने के कारण पहला राष्ट्रवाद विविधताओं का समाहार करते हुए विकसित हुआ है जबकि दूसरे का राष्ट्रवाद बहुलतावादी है। एक भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में देखता है तो दूसरे का राष्ट्रवाद धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है। पहला दल बीजेपी है तो दूसरा दल कांग्रेस। और चुनाव में दोनों अपने-अपने राष्ट्रवाद के साथ आमने-सामने हैं।

मान्यता और प्रचार

भौगोलिक सीमाओं पर आधारित होने के कारण पहले प्रकार के राष्ट्रवाद अर्थात बीजेपी की प्रमुख चिंता भारतीय सीमाओं से जुड़ी है, राष्ट्रीय एकता से जुड़ी है। इसके लिए विविधताओं का समाहार करने की जरूरत है। धार्मिक-सांस्कृतिक विविधता वाले इस देश में एकता स्थापित करने के लिए भावनात्मक रूप से भी भारत को एक करने की जरूरत है। बीजेपी इस ओर अग्रसर है। बंटवारे ने भारत को दो हिस्सों में तोड़ दिया था और इसका आधार धर्म को बनाया गया था। इसलिए यह दल भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में देखता है। इस दल का पाकिस्तान विरोध स्वाभाविक है। हिंदुओं के पवित्र स्थल हिंदुस्तान में हैं तो बहुत से धर्मों से जुड़े लोगों के तीर्थ स्थल देश के बाहर भी हैं। लेकिन इस आधार पर उनकी राष्ट्रीयता का फैसला करना ठीक नहीं होगा। यह सवाल इतना आसान भी नहीं है।

भारत के संविधान की पूर्वपीठिका से स्पष्ट है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र है। सभी धर्मों को संविधान ने एक नजर से देखा है। जाति, धर्म आदि से ऊपर उठकर सबको समानता प्रदान की है। उसने विविधता में एकता के भाव को स्थापित किया है। धार्मिक सहिष्णुता उसका मूल है। कांग्रेस इसी नजर से भारतीय राष्ट्रवाद को देखती रही है। यह राष्ट्रवाद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। समय के साथ उसमें सुधार होता गया है। दूसरी ओर संघ परिवार का राष्ट्रवाद है जो राष्ट्रीय सीमाओं के आधार पर विकसित हुआ है। उसके लिए एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा आदि की संकल्पना है। हिंदू राष्ट्र की छवि उसके लिए सर्वोपरि है। यही कारण है कि बीजेपी स्वयं को हिंदू हितों की एकमात्र रक्षक बताती रही है और कांग्रेस को हिंदू हितों की विरोधी करार देती रही है। खास तौर पर समझौता एक्सप्रेस केस के फैसले के बाद बीजेपी के नेताओं ने कहना शुरू कर दिया है कि कांग्रेस हिंदू विरोधी है और उसने हिंदुओं को बदनाम करने की कोशिश की है।

इधर पुलवामा हमले के बाद प्रधानमंत्री की छवि एक ताकतवर और देश के लिए समर्पित नेता की उभरी है। घटनाक्रम कुछ इस प्रकार का रहा कि देश में राष्ट्रवादी माहौल बन गया। बीजेपी इसे जन-जन के बीच ले जाने का कार्य कर रही है। इसके बरक्स कांग्रेस अपने समावेशी स्वरूप वाले राष्ट्रवाद की बात कर रही है, हालांकि उसने इसे चुनावी मुद्दा नहीं बनाया है। इस तरह दो प्रकार के राष्ट्रवाद आमने-सामने हैं। एक कह रहा कि भारतीय विविधता का सम्मान किया जाना चाहिए और विरोधियों को सुना जाना चाहिए तो दूसरा प्रचारित कर रहा है कि कांग्रेस भारत की राष्ट्रीय छवि को धूमिल कर रही है, पाकिस्तान की भाषा बोल रही है और बालाकोट हमले पर सवाल खड़े कर रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने कहा है कि यदि वह सत्ता में आई तो कश्मीर में सेना के विशेषाधिकार की समीक्षा करेगी।

एक तरफ बीजेपी और उसका शीर्ष नेतृत्व राष्ट्रीय एकता, अखंडता, आतंकवाद आदि को मुद्दा बना रहा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस बहुलतावादी संस्कृति को आधार बनाकर मानवाधिकार को महत्व दे रही है। वह एकता में अखंडता के साथ-साथ विविधताओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सम्मान दे रही है। बीजेपी उसे बार-बार हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी घोषित कर रही है। मगर दोनों दल आज अलग-अलग विषयों को लेकर चल रहे हैं। यह कांग्रेस की बुनियाद रही है। स्वयं नेहरू की मान्यता थी- जैसा कि एक बार उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था- कि प्रजातंत्र में बहुसंख्यक अपनी सरकार तो बनाता ही है, लेकिन इसके चलते अल्पसंख्यकों के अधिकारों की अनदेखी होने का खतरा बना रहा रहता है। इसलिए बहुसंख्यक दल की यह जिम्मेदारी हुआ करती है कि वह अल्पसंख्यकों का सम्मान करे, उनकी अनदेखी होने से बचाए। इधर बीजेपी के नेताओं ने अनुच्छेद 370 को समाप्त किए जाने को प्राथमिकता दी है।

विविधता की ताकत

यह राष्ट्रीय मुद्दा है और इसे देश की आवश्यकता के अनुरूप ही देखा जाना चाहिए। पर इसका अर्थ यह नहीं कि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित अन्य दलों के नेताओं को इस विषय पर सुना ही न जाए। आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि राष्ट्रवाद को किस रूप में देखा जाए। क्या विविधताओं की अनदेखी करके कोई राष्ट्रवाद सफल हो सकता है? क्या क्षेत्रीय सीमाओं पर आधारित राष्ट्रवाद सर्वोपरि है? यदि ऐसा है तो भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान हमारे राष्ट्रवादी नेताओं ने भारत को बहुलतावादी, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनाना क्यों स्वीकार किया? संविधान ने विविधताओं को इतना महत्व क्यों दिया? संविधान में भारत को गणराज्य माना गया है। कानूनों के लिए तीन प्रकार की सूचियां बनाई गई हैं। राज्यसभा बनाई गई है। भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात कही गई है। मतलब यह कि भारत ने संघीय व्यवस्था चुनी, जो हमारे संविधान की शक्ति है। इन सब पहलुओं को ध्यान में रखकर ही राष्ट्रवाद पर कोई राय बनाई जानी चाहिए।

लेखक: सीपी भांबरी

(डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं)