ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने लखनऊ में तीन दिवसीय दारुल कजा कांफ्रेंस का आयोजन किया. इसका मुख्य उद्देश्य था उन काजियों को सही दिशा में प्रशिक्षित करना जो इन अदालतों में बैठते हैं.
डी डब्ल्यू हिन्दी पर छपी खबर के अनुसार, लखनऊ के ईदगाह में हुई इस कॉन्फ्रेंस में लिए गए कई बड़े फैसले. बोर्ड के सचिव जफयब जीलानी ने सबसे पहले ये बात साफ़ कर दी कि दारुल कजा को हर भाषा में दारुल कज़ा ही बोला और लिखा जाए.
इसकी जगह इस्लामी अदालत, शरई अदालत, शरिया कोर्ट जैसे शब्दों का प्रयोग न किया जाए. बताते हैं ऐसा इस वजह से भी जरूरी था क्योंकि इस्लामी अदालत लिखने और बोलने से एक पूर्णरूपेण अदालत होने का संदेश जा रहा था, जो कि सही नहीं है.
इसके कारण दूसरे समुदायों में तमाम भ्रांतियां बन रही थीं और ये भी महसूस किया जा रहा था कि ये अदालतें देश के अंदर मुसलमानों की अपनी अलग न्याय व्यवस्था चला रही हैं. अब इनको सिर्फ दारुल क़ज़ा कहा जाएगा और वहां बैठने वाले को काजी.
कांफ्रेंस में ये प्रस्ताव पारित किया गया कि तमाम मदरसे और ऐसी संस्थाएं जहां पर काजी की पढ़ाई और ट्रेनिंग होती है, वहां उनके पाठ्यक्रम में भारत के संविधान की वो धाराएं शामिल की जाएं, जिनका वास्ता मुस्लिम समुदाय से हो. ये एक बड़ा कदम माना जा रहा है क्योंकि अकसर यही आरोप रहता है कि क्या ये अदालतें भारत के संविधान से ऊपर हैं?
बोर्ड के सचिव जीलानी ने बताया, “दारुल कज़ा का देश के अदालती सिस्टम से कोई टकराव नहीं हैं बल्कि कानून में इस बात की ना सिर्फ यह की छूट है बल्कि वह इस बात को बढ़ावा देता है कि काउंसलिंग के जरिये खानदानी मामलात को हल करने की हर मुमकिन कोशिश की जाए. जीलानी बताते हैं कि दारुल कजा यही भूमिका निभाते हैं.
वे बताते हैं कि दारुल कजा आर्बिट्रेशन एक्ट के अनुसार काम कर रहे हैं और यह अदालतों के बोझ को बहुत हद तक हल्का और कम करने में मददगार हैं.
दारुल क़ज़ा में सिर्फ उन्हीं मामलों को लिया जाता है जो किसी भी अदालत में दायर ना हुए हों. जीलानी ने बताया, “दारुल क़ज़ा में फौजदारी के मामलों को क़ुबूल नहीं किया जाता है इसीलिए इस सिस्टम की अदालती सिस्टम से तुलना नहीं कर सकते हैं.”
इस कांफ्रेंस का आयोजन करने वाले मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने बताया, “दारुल कजा देश के संविधान के दायरे में काम कर रहा है. कुछ ताकतें बोर्ड पर आरोप लगाती है लेकिन ये भी देखिये कि इन दारुल कजा में 90 फीसदी मुस्लिम औरतें ही मामलात लाती हैं. बिना किसी परेशानी और कम वक्त में उनके मामले हल किए जा रहे हैं.”
बोर्ड की इस पहल से दारुल क़ज़ा के बारे में फैली तमाम भ्रांतियां कम होने की उम्मीद जताई जा रही है. बोर्ड ने इतिहास के आईने में भी इन दारुल क़ज़ा को मौजूद बताया.
इस बात का दावा भी किया कि जब गुजरात में मुसलमान समंदर के किनारे पहुंचे तो उन्होंने दारुल कजा की स्थापना की और इनको उस दौर के गैर मुस्लिम राजाओं की स्वीकार्यता मिली.
ये अपील भी की गयी है कि हर महीने में कम से कम एक जुमे में खुतबे (नमाज़ से पहला दिया जाने वाला बयान) से पहले मस्जिदों के इमाम नमाजियों को दारुल क़ज़ा की अहमियत के बारे में ज़रूर बताएं. बोर्ड अब दारुल कजा के लिए आर्थिक सहयोग भी लेने को तैयार है. इसके लिए उसने लोगों से आर्थिक सहयोग करने को कहा है जिससे ये दारुल कजा चल सकें.
बोर्ड की जानकारी के अनुसार उत्तर प्रदेश में 19, महाराष्ट्र में 33, राजस्थान में 4, मध्य प्रदेश और दिल्ली में दो-दो दारुल क़ज़ा हैं. इसके अलावा गोवा, पंजाब और कर्नाटक में एक-एक दारुल कजा हैं.
दावा है कि दारुल क़ज़ा के फैसले 99% लोग मान लेते हैं और 1% लोग ही इसके बाद अदालत जाते हैं. राजधानी लखनऊ में मौजूद फरंगी महल दारुल क़ज़ा में पिछले नौ साल का रिकॉर्ड देखें, तो 380 मामलों में फैसला दिया है. इनमें से ज्यादातर मामले विवाह विच्छेद, तलाक, गुजारे और घरेलू झगड़ों और अधिकारों के होते हैं.