ट्रंप का फिजूल भारत पर भारी होना

   

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप गज़ब के गैर-जिम्मेदार आदमी हैं। उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अफगानिस्तान में भारत की भूमिका के बारे में जो कुछ कहा है, वह घोर आपत्तिजनक है। उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की बैठक में कह दिया कि मोदी काफी चतुर-चालक आदमी हैं। वे जब मुझसे मिले तो बार-बार मुझसे कहते रहे कि भारत ने अफगानिस्तान में एक लायब्रेरी बनाई है। उस लायब्रेरी में वहां कौन जाता होगा ? अमेरिका ने वहां जो अरबों डाॅलर बहाए हैं, उनके मुकाबले यह भारत का ऐसा काम है, जो पांच-छह घंटे में पूरा हो सकता है। ट्रंप के कहे का अर्थ यह भी है कि लायब्रेरी की बात बार-बार बोलकर मोदी ने बड़ा अहसान जताया और हमसे यह उम्मीद की कि इस महान कार्य के लिए अमेरिका उन्हें धन्यवाद दे।

ट्रंप ने लायब्रेरी की बात कही। यह ट्रंप ही कह सकते हैं। मोदी तो भारत के प्रधानमंत्री हैं। वे ऐसा कह ही नहीं सकते। अफगानिस्तान में कार्यरत हमारे अनपढ़ मजदूर भी ऐसी बात नहीं कह सकते। वह लायब्रेरी नहीं है। वह संसद भवन है। अफगानिस्तान का संसद भवन ! यह शानदार संसद भवन इंदिराजी के ज़माने में बनना शुरु हुआ था। उस सस्ते ज़माने में इस भवन पर भारत ने करोड़ों रु. खर्च किए थे। इसके पहले जहां अफगान संसद चलती थी, उसमें भी पचास साल पहले कई बार जाने का मौका मुझे मिला था लेकिन यह बात मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि भारत का बनाया हुआ अफगानिस्तान की संसद का यह भवन उस राष्ट्र की अनमोल धरोहर है। जैसे बादशाह जाहिरशाह के महल ‘काखे-गुलिस्तान’ पर हर अफगान को गर्व है, वैसे ही उसे इस संसद भवन पर भी गर्व है। भारतीय इंजीनियरों ने अफगान लोकतंत्र का यह नया मंदिर खड़ा किया है। इस संसद भवन को ट्रंप ने पुस्तकालय बताकर और मोदी का मजाक उड़ाकर अपनी भद्द पिटवाई है।

भारत ने अफगानिस्तान में लोकतंत्र का मंदिर ही नहीं बनाया है, उसने वहां बच्चों का ऐसा सबसे बड़ा अस्पताल भी दशकों पहले बना दिया था, जिसने लाखों अफगान बच्चों को जान बख्शी है। भारत ने अफगानिस्तान में अब तक लगभग 25 हजार करोड़ रु. खर्च किए हैं। इतना पैसा अफगानिस्तान के निर्माण-कार्यों में अमेरिका, रुस और चीन ने भी नहीं किया है। भारत ने अफगानिस्तान में क्या-क्या नहीं बनाया है ? बिजलीघर, बिजली की लंबी-लंबी लाइनें, कई बांध, कई नहरें, कई स्कूल, कई पंचायत घर ! सबसे बड़ा निर्माण कार्य हुआ है, ईरान और अफगानिस्तान को सीधे सड़क से जोड़ने का। जरंज-दिलाराम सड़क 218 किमी लंबी है। इस पर भारत ने अरबों रु. खर्च किया है। रुपया ही नहीं, हमने हमारे मजदूरों और जवानों की जिदंगियां भी कुरबान की हैं। तालिबान आतंकियों ने सड़क को बनने से रोकने के लिए उन पर कई हमले किए। इस सड़क ने अफगानिस्तान की 200 साल पुरानी मजबूरी को खत्म किया। उसे अब अपने यातायात और आवागमन के लिए पाकिस्तान पर निर्भर रहने की जरुरत नहीं है। अब फारस की खाड़ी से वह सीधे जुड़ गया है। इस सड़क के बारे में प्रधानमंत्री सरदार दाऊद और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मैंने दाऊद की भारत-यात्रा के दौरान 1975 में बात की थी लेकिन यह बनकर तैयार हुई, अटलजी के प्रधानमंत्री काल में। अफगानिस्तान के उत्तर में रुस ने और दक्षिण में अमेरिका ने 50-55 साल पहले सड़कों का जाल बिछाया था लेकिन भारत द्वारा निर्मित इस सड़क ने अफगानिस्तान जैसे जमीन से घिरे देश को भू-राजनीतिक आजादी प्रदान की है।

अफगानिस्तान में हमारे हजारों डाॅक्टरों, इंजीनियरों, शिक्षकों, पत्रकारों, अफसरों और विशेषज्ञों ने पिछले 70 साल मंर इतना जबर्दस्त योगदान किया है कि वहां के कट्टरपंथी लोग भी भारत की तारीफ किये बिना नहीं रहते लेकिन ट्रंप हैं कि वे भारत के प्रधानमंत्री का मजाक उड़ाने का दुस्साहस करते हैं। अफगानिस्तान को दी गई भारतीय मदद अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास में अनौखी है। अमेरिका के सिपाही अपनी बख्तरबंद गाड़ियों, बंदूकों, मिसाइलों और तोपों के बावजूद अफगानिस्तान के गांवों में जाने से डरते हैं जबकि भारतीय विशेषज्ञ निहत्थे ही गांव-गांव जाकर लोगों की सेवा करते हैं। अफगानिस्तान के एक पाकिस्तानपरस्त  प्रधानमंत्री ने मुझे 1972 में विस्तार से समझाया था कि हम मुस्लिम राष्ट्र होते हुए भी पाकिस्तान की बजाय भारत के हिंदू सेवादारों को क्यों ज्यादा पसंद करते हैं।

ट्रंप अपनी अमेरिकी सेनाओं को सीरिया, अफगानिस्तान, कोरिया, प्रशांत आदि क्षेत्रों से लौटा लेना चाहते हैं, यह उनकी अपनी मर्जी है लेकिन उनका यह आग्रह विचित्र है कि भारत, रुस और चीन, जो अफगानिस्तान के पड़ौसी हैं, वे वहां अपनी फौजें क्यों नहीं भेजते ? ‘हम’ 6000 मील दूर अपनी फौजें क्यों भेजें ? ट्रंप की यह बात सुनकर मुझे यह कहने का मन करता है कि अमेरिका जैसे महाशक्ति राष्ट्र का राष्ट्रपति होने की बजाय ट्रंप को कोई छोटी-मोटी दुकान चलाना चाहिए। उन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति का रत्ती भर ज्ञान भी नहीं है। द्वितीय महायुद्ध के आद अमेरिका ने अपनी अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए और अपने वर्चस्व को बढ़ाने के लिए सारी दुनिया में अपना सैन्य-जाल बिछाया था। प्रसिद्ध अमेरिकी विदेश मंत्री जाॅन फास्टर डलेस के शब्दों में अमेरिका जब किसी देश पर एक डाॅलर खर्च करता है तो वह एक डाॅलर,  तीन डाॅलर बनकर वापस लौटता है। दूसरे देशों में डटे अमेरिकी सैनिक उन-उन देशों के नहीं बल्कि अपने अमेरिकी हितों के लिए भेजे जाते हैं।

जहां तक भारत, रुस और चीन के सैनिकों को अफगानिस्तान में भेजने का सवाल है, ट्रंप को पता होना चाहिए कि 20 साल में रुस के 13 हजार सैनिकों को अफगान लोग मौत के घाट उतार चुके हैं। इसके अलावा 1842 में ब्रिटेन के सभी 16 हजार सैनिकों को अफगानों ने कत्ल कर दिया था। सिर्फ एक सिपाही डाॅक्टर ब्राइडन जान बचाकर भाग निकला था। जहां तक भारत का सवाल है, भारत भूलकर भी अफगानिस्तान में अपने सैनिक कभी नहीं भेजेगा। जनवरी 1981 में मेरे पुराने मित्र प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने मुझसे काबुल में आग्रह किया कि मैं किसी तरह इंदिराजी को मनाऊं और भारतीय सैनिकों को काबुल भिजवा दूं ताकि वे रुसी फौजियों को मदद कर सकें। मैंने उन्हें बताया कि यह प्रस्ताव भारत और अफगानिस्तान, दोनों के लिए खतरनाक सिद्ध होगा, क्योंकि एक तो पाकिस्तान को कुप्रचार का मौका मिल जाएगा और दूसरा अफगानिस्तान के इस्लामी कट्टरपंथी कहेंगे कि बबरक ने यह हिंदुआना-काफिराना फौज हमारी छाती पर चढ़ा दी है। बबरक चुप हो गए और इंदिराजी को यह तर्क काफी पसंद आया। इंदिराजी के बाद के प्रधानमंत्रियों ने भी इसे ही भारतीय नीति बनाया लेकिन अफगानिस्तान को भारत यदा-कदा युद्ध सामग्री और उसके जवानों को सैन्य-प्रशिक्षण देते रहा। ट्रंप के पास इतनी फुर्सत नहीं कि वे इन बारीकियों में जा सकें।

जहां तक चीन का सवाल है, वह अपने सैनिक अफगानिस्तान में किससे लड़ने भेजेगा ? क्या पाकिस्तान-पोषित तालिबान से लड़ने के लिए ? पाकिस्तान तो चीन की नाक का बाल है। ट्रंप को इतनी मोटी समझ भी नहीं है। ट्रंप ने अफगानिस्तान से अपने अमेरिकी सैनिकों की वापसी की नाटकीय घोषणा तो कर दी है लेकिन अभी तक उन्होंने पक्के आदेश जारी नहीं किए हैं। उनका कुछ भरोसा नहीं। वे कब तोला हो जाएं और कब माशा बन जाएं, कौन जाने ? वे कब टन भर हो जाएं और कब कन भर हो जाएं, कौन जाने ? वे भारत पर फिजूल भारी हो रही हैं।