दिल्ली दंगों के आरोपी को जमानत देते हुए कोर्ट ने कहा- “जेल दोषियों को सजा देने के लिए है, अंडरट्रायल को हिरासत में लेकर समाज को संदेश भेजने के लिए”

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दिल्ली दंगों के दौरान एक दुकान जलाने के आरोपी व्यक्ति को जमानत देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि अगर अदालत को यह लगता है कि अभियुक्त को जेल में रखने से जांच और अभियोजन में कोई सहायता नहीं होने वाली है तो सिर्फ इस आधार पर जमानत देने से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरोपी को हिरासत में रखकर ‘समाज को एक संदेश भेजना’है।

न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की एकल पीठ ने कहा कि जेल मुख्य रूप से दोषियों को सजा देने के लिए है, न कि अंडरट्रायल को हिरासत में लेकर ‘समाज को संदेश भेजने’के लिए।  अधिसूचना में सिर्फ दिल्ली के मतदाता वकीलों को योजना का लाभ अदालत ने कहा कि- ‘कोर्ट का काम कानून के अनुसार न्याय करना है, न कि समाज को संदेश देने का। यह एक ऐसी भावना है, जिसके तहत राज्य मांग करता है कि बिना किसी उद्देश्य के भी कैदियों को जेल में रखा जाए, जिससे जेलों में भीड़ बढ़ जाएगी। वहीं अगर इस अपरिहार्य धारणा के साथ अंडरट्रायल को रखा जाएगा तो उनको ऐसा लगेगा कि उनके मुकदमों की सुनवाई पूरी होने से पहले ही उनको सजा दे दी गई है और सिस्टम उनके साथ गलत व्यवहार कर रहा है।

वहीं यदि एक लंबी सुनवाई के बाद अंत में अभियोजन पक्ष अपना आरोप साबित करने में नाकाम रहता है तो राज्य अभियुक्त द्वारा जेल में बिताए गए उसके जीवन के बहुमूल्य वर्षों को वापस नहीं कर सकता। दूसरी तरफ यदि मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के बाद किसी अभियुक्त को सजा दी जाती है तो निश्चित रूप से उसे वह सजा काटनी होगी।’ याचिकाकर्ता की तरफ से दी गई दलीलें आवेदक के लिए उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका एम जॉन ने दलील दी कि शिकायतकर्ता मोहम्मद शानावाज के जिस पूरक बयान पर राज्य भरोसा कर रहा है, उस बयान में कहीं भी आवेदक को कथित अपराध के साथ नहीं जोड़ गया है।

जॉन ने यह भी दलील दी कि शिकायतकर्ता से आवेदक ही पहचानने करवाने के लिए आवेदक की कोई भी पहचान परेड नहीं करवाई गई थी, जो कि गैरकानूनी रूप से एकत्रित होकर आगजनी करने जैसे मामलों में की जानी चाहिए। यह भी प्रस्तुत किया गया था कि शिकायतकर्ता की दुकान, जहां कथित तौर पर आवेदक को स्पॉट किया गया है। वहीं राजधानी पब्लिक स्कूल के पास का सीसीटीवी फुटेज जिसमें आवेदक की उपस्थिति दिख रही है। यह दोनों क्षेत्र एक-दूसरे के आसपास नहीं हैं। इसके बाद सुश्री जॉन ने यह भी तर्क दिया कि जिन धाराओं के तहत आरोप लगाया गया है, उनमें से सिर्फ आईपीसी की धारा 436 के तहत ही एक गैर-संज्ञेय अपराध बनता है।

राज्य द्वारा दिए गए तर्क राज्य की तरफ से पेश होते हुए अतिरिक्त लोक अभियोजक ने दलील दी कि आरोपी की पहचान शिकायतकर्ता कांस्टेबल विकास ने की थी। साथ ही उसकी पहचान राजधानी स्कूल के बाहर के सीसीटीवी फुटेज से हुई है। इसके अलावा यह प्रस्तुत भी किया गया कि इस घटना का कोई फुटेज उपलब्ध नहीं है, लेकिन पीडब्ल्यूडी द्वारा विभिन्न इलाकों में लगाए गए कुछ कैमरों की फुटेज अभी मिलनी बाकी हैं, जिनके आधार पर आगे की जांच की जाएगी। कोर्ट ने क्या कहा सबूतों को देखने के बाद अदालत ने कहा कि कहीं भी शिकायतकर्ता ने आवेदक का नाम नहीं लिया है अन्यथा आवेदक की पहचान हुई है।

अदालत ने उस कांस्टेबल विकास के बयान पर भरोसा करने से इनकार कर दिया, जिसे मामले का चश्मदीद गवाह बताया गया है। अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता ने अपने बयान में यह बताया है कि जब आरोपी कथित तौर पर उसकी दुकान जला रहा था तो उसने पुलिस को फोन करने की कोशिश की थी परंतु कोई फायदा नहीं हुआ। अदालत ने कहा कि ‘पहली बार में यह समझ में नहीं आ रहा है कि जब कांस्टेबल विकास मौके पर मौजूद था तो शिकायतकर्ता यह क्यों कहेगा कि उसने पुलिस को टेलीफोन किया था, परंतु वह विफल रहा।’

अदालत ने इस दावे पर भी संदेह जताया कि 400 मीटर दूर स्थित स्कूल के सीसीटीवी कैमरा में शिकायतकर्ता की दुकान के बाहर हो रही घटना रिकॉर्ड हुई होगी। आरोपी को जमानत देते समय अदालत ने कहा कि- ‘जबकि आमतौर पर यह अदालत जमानत पर विचार करते समय सबूतों पर किसी भी प्रकार की चर्चा नहीं करती है। हालांकि यहां एक ऐसा मामला है, जहां लगभग 250-300 व्यक्तियों ने गैरकानूनी तौर पर एकत्रित होकर एक अपराध किया है और उनमें से पुलिस ने सिर्फ दो को पकड़ा है, जिनमें से एक आवेदक भी है।

इस अजीबोगरीब परिस्थिति में यह अदालत प्रथम दृष्टया सबूतों की जांच करने पर मजबूर हुई है, जो सिर्फ यह आकलन करने तक सीमित है कि कैसे पुलिस ने इतनी भीड़ में से आवेदक की पहचान की है।’ इस मामले में याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका एम जॉन और अधिवक्ता बिलाल अनवर खान ने किया था।

साभार- https://hindi.livelaw.in/