दो राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रः कथनी, करनी, और नीयत की छानबीन!

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चुनावी घोषणा पत्रों का जाहीर होने का सिलसिला जारी रहा है। घोषणापत्र केवल ‘घोषणाबाजी’ होती है और उनके भरोसेमंद नहीं होने की बात जब जन जन में फैल गयी है, तब मुख्यधारा की पार्टीयां ‘संकल्प-पत्र’ या ‘वचन-नामा’ जैसा अलग नाम देकर प्रभाव डालने की कोशिश में हैं। फिर भी संकल्प पत्र को मतदाताओं को बांटना मात्र इंटरनेट से ही जितना हो, जो भी पढ ले, उतना ही प्रचार होता हैं, जिसकी मर्यादा स्पष्ट हैं। वैसे भी घोषणा पत्र का किसी भी पार्टी या प्रत्याशी पर बंधनकारक न होना, 1951 के जनप्रतिनिधित्व कानून की एक बड़ी त्रुटी है जो आज तक दूर नहीं हुई हैं। चुनाव व्यवस्था में बेहद जरूरी दिखते रहे जनता से मांगे गये कई अन्य सुझावों के साथ जो सुधार कार्य आज तक नही हो पाया है, उसी का यह एक हिस्सा हैं।

तुलनात्मक विश्लेषण

घोषणा पत्रों में पार्टी की विचारधारा,पूर्वोतिहास नही तो भी पूर्व कार्यकाल का और आगे की दिशा, कार्यक्रम और निर्णय, योजनाकार्य, पूंजीनिवेश आदि का विवेचन अपेक्षित है। इन सभी मुद्दों को ढालते हुएइस बार लोकसभा चुनाव के कांग्रेस और भाजपा, दोनो के संकल्प पत्र और ‘हम निभायेंगे’ घोषणा पत्र, करीबन 50-50 पन्नों के एक विस्तृत दस्तावेज के रूप में प्रकाशित हुए हैं। दोनो ने दावा किया है कि उन्होने कई समुदायों से, प्रतिनिधियों से, विशेषज्ञों से, संगठनों और आम नागरिकों से बातचीत की है। सच कहे तो अधिकांश बातचीत अपने ही व्यापक लेकिन परिवारों के ही भीतर होती है और वह स्वाभाविक भी है। इसीलिये पाच सालों में और उससे भी अधिक कार्यकाल में, जो भूमिका हर पार्टी ने निभायी है और जो विचार, दिशा अभिव्यक्त की है, उसी को वाचक उनके इन पत्रो में पाते हैं। बस कुछ बडे दावों से की हुई सजावट, दिखावे की चमकान, देखे तो भी उसी के भीतर अंधेरे के काले धब्बे ढूंढना नामुमकिन नहीं होता है। न केवल काले दाग या सफेद पोशी भी, इन चुनाव पत्रों में छायी चुनावी नीतियां और प्रत्यक्ष कृतियां, चुनावों के मद्देनजर प्रसारित किये नये मुद्दें और प्रस्तुतियां, तथा परस्पर विरोधी विचार,इन सबकी खोज के लिए जरूरी है, इन चुनाव पत्रों का वाचन तथा उसका तुलनात्मक विश्लेषण भी! जरूरी हैं, इनमें कही बाते, किये हुए वचनों के बीच छुपा विरोध भी जांचना और कोई मूलभूत बुनियादी मुद्दों का लुप्त रहना भी।

मुख पृष्ठ से ही फर्क दिखाई देता हैं। कांग्रेस देश के करोड़ो करोड़ो लोगों की जनशक्ती का ऐहसास देती है और भाजपा प्रधानमंत्री की व्यक्ति शक्ति युक्ती से भरी तसवीर पेश करती है।

भाजपा ने शुरू में ही तीन चार लम्बे आलेखों में, जो पदाधिकारियों के नाम पेश किये है, अपना सर्वांगी नजरिया पेश किया है। शुरूआत में ही व्यक्त की गयी विचारधारा में कांग्रेस ने देशकी जनता को अनुभव हो रही असुरक्षा पर जोर देकर भाजपा की सरकार होते हुए फैले भय के और हिंसा के आतंक पर जोर दिया है तो भाजपा ने राष्ट्रीय सुरक्षा, सीमा सुरक्षा और सेनाबल पर। कांग्रेस के घोषणा पत्र में हर मुद्दें पर कुछ वैचारिक सोच शुरूआत में लिखी है इसलिए अनुसूचित जाति, जनजाति याने दलित, आदिवासीयों संबंधी कुछ थोड़ी विस्तार से भूमिका पढने मिलती है। भाजपा के विचार मात्र प्रधानमंत्री, अमित शाह, राजनाथसिंह जी के आवाहन पत्र, तथा ‘एक नए भारत की ओर’ के दो पन्नों में ढूंढे तो उसमें इन वंचितों को अनदेखा किया गया हैं। समुदायों सम्बन्धी क्वचित कोई उल्लेख भी नहीं। ‘‘संवैधानिक प्रावधानों का लाभ दिलाएंगे” इसके अलावा पूरे संकल्प पत्र में केवल यह एक आश्वासन इन वंचितों को देते हुए ‘अन्त्योदय’का केवल उल्लेख करना भ्रामक लगता है।

कांग्रेस ने इन अनुसूचित, वंचितो के आरक्षण से लेकर कुछ विस्तार से बात रखी है और उन्ही के राज में लाये गये वनाधिकार अधिनियम, वनीकरणयोजना, आदि के अमल के साथ आमसभा की भूमिका स्पष्ट करने का वादा किया है। आशा है यह भूमिका अर्थात ही 2006 के कानून के विपरित नहीं होगी। अभी अभी सर्वोच्च अदालत में चंद पर्यावरणवादियों की ‘मांग याचिका’ पर, केन्द्र शासन ने क्या किया? अपात्र पाये गये 11 लाख आदिवासी परिवारों को हटाने का फैसला आने तक आदिवासियेां के पक्ष में, कोई पैरवी न करते हुए विस्थापन का आदेश आने दिया। इस संदर्भ में कड़ी टीका होने के बाद भी भाजपा की ओर से इस मुद्दें पर इस संकल्प पत्र में प्रतिक्रिया नहीं, यह क्या बताता है? ‘‘हम वनवासियों, विशेषतः आदिवासी समुदायों के हितों की लगातार रक्षा करेंगे और उन्हें बढावा देंगे’’ यह उनकाआश्वासन इसलिए खोखला लगता है। दलित, बहुजनसमाज के सामाजिक न्याय का कार्य क्या, सोच भी कमजोर या अनुपस्थित रहते हुये, किसी के चुनावी घोषणा पत्र को ‘अन्त्योदयी’ कैसे कहें? दीनदयाल उपाध्यायजी की विचारधारा के अन्त्योदय की बात भाजपा ने की है, अन्त्योदयशब्द और संकल्पना के निर्माता गांधीजी की नहीं, यह भी विशेष।

‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ और ‘आतंकवाद’

चुनाव के पहले पहले पाकिस्तान की सीमा पर हुआ ‘आमना सामना’ देश में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ और ‘आतंकवाद’ का मुद्दा और युद्धज्वर फैलाकर अभी अभी कुछ शांत हुआ है। लेकिन मतदाता इसी पर खासगौर करकेअपना वोट डाले, यह भाजपा का आवाहन है। ‘राष्ट्र सर्वप्रथम’ यह शीर्षक है, उनके संकल्प पत्र के पहले संभाग का। इस पर रक्षा क्षेत्र में नये उपकरण, आधुनिक तंत्रज्ञान, सैनिकों के लिए कल्याण योजनाएं, सेवानिवृत सेनाकर्मियों के पुनर्वास आदि मुद्दों पर किये वादे तो दोनो पार्टियों के चुनाव पत्रों में है। फिर भी दोनो में काफी फर्क है। कांग्रेस ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद, सलाहकार बोर्ड को पुनर्स्थापित करने की बात कही है, जिससे 2015-16 में लिए केन्द्र शासन के अ-जनतांत्रिक निर्णयों को उजागर किया गया है। सार्वजनिक और निजी, दोनों कंपनियों द्वारा रक्षा उपकरणों के निर्माण के साथ सुरक्षा एजेन्सी के प्रमाण पत्र की शर्त कांग्रेस ने रखी है। भाजपा ने स्वदेश में ही निर्माण का वादा किया है, वह भी पांच सालों में आत्मनिर्भरता सुनिश्चिती के प्रभावी कदम उठाये जाने का दावा करते हुए। राफेल या बोफोर्स के मुद्दे का तो कोई विस्तृत उल्लेख करेंगे ही नहीं लेकिन निजी और सार्वजनिक उत्पादकों के बीच इतना बड़ा फर्क या घोटाला होता आया है, तो भी भाजपा के द्वारा ‘स्वदेशी’ क्या है, यह स्पष्टता तक न करना निश्चित ही निजीकरणवादी भूमिका का ही स्वयं स्पष्ट प्रकटन है। हू विल मेक इन इंडिया? यह सवाल अनुत्तरित है। भारत में भी ठभ्म्स् के बदले अम्बानी या अडानी करे, तो वे भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों में शामिल है।

आतंकवाद, उग्रवाद पर दोनों की भूमिकाओं में जो फर्क है, वह संवैधानिक-असंवैधानिक का कुछ है लेकिन हिंसक और हिंसा निर्मूलक के बीच का भी है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने सशस्त्र संघर्ष का कड़ा मुकाबला चाहा है जरूर, लेकिन छत्तीसगढ या आंध्रप्रदेशध्तेलंगाना या महाराष्ट्र के माओवादीयों से प्रभावित क्षेत्रों में आज के केन्द्र या राज्य की भाजपा सरकार ने बहुत सारा विकास कर दिया है, यह दावा कोई कैसे मंजूर करें? क्या सशस्त्र संघर्ष खत्म हुआ है? छत्तीसगढ राज्य में विधानसभा चुनाव में हुई भाजपा की हार फिर किसका नतीजा है?

कांग्रेस ने आंतरिक सुरक्षा की व्यापक स्थिति ध्यान में लेते हुए, माओवाद और नक्सलवाद को निपटने की दोहरी नीति कहते हुए, कुछ कदम अंकित किये हैं। इस पर बहस हो सकती है क्योंकि ‘शहरी नक्सल’ कहते हुए भाजपा ने कई वरिष्ठ, ईमानदार, कटिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखक, शोधकर्ताओं को भी राष्ट्रद्रोही ठहराकर जेल बंद किया है, जो मंजूर नहीं हो सकता। जब तक किसी से अपराधी, हिंसक, असंवैधानिक कार्य नहीं किये जाते, तब तक उस व्यक्ति के किसी नजरिये पर या तत्वज्ञान पर आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन कांग्रेस ने व्यक्त की हुई विकास कार्य से माओवादी कार्यकर्ताओं का भी दिल जीतने की भावना और मनी उनके घोषणा पत्र को कुछ गांधीवादी नजरिये से जोड़ती है, भले ही इस मुद्दे पर उनके खिलाफ प्रचार क्यों न चल रहा हो।

जातिवाद, सांप्रदायिकता

सबसे महत्व की बात यह है कि भाजपा के संकल्प पत्र में ‘जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार से निपटना हमारा लक्ष्य है’ इतनी सी बात के आगे जातीय अत्याचार, सांप्रदायिक हिंसा आदि को न हि‘ आंतरिक असुरक्षा’ का कारण बताया गया है न हि इस हकीकत का जिक्र है, न हि उस पर कोई उपाय या कार्य का आश्वासन तक है। क्या उनकी नजर में यह कोई समस्या है ही नही? अखलाख, पेहलूखान, जुनेद के परिवारजन ही नही, जगह जगह हो रहे जाति-मजहब पर आधारित हमलों पर प्रधानमंत्री की चुप्पी तो सबको खटकती रही है, पर संकल्प पत्र भी इस पर चूप क्यों?

कांग्रेस ने आतंरिक सुरक्षा के मुद्दों में ‘महिलाओं के प्रति अपराध’ को भी जोड़कर सख्त कार्यवाही, सतर्कता और मॉरल पोलिसिंग याने नैतिक सतर्कता के दुराग्रह जैसे हर अत्याचार के खिलाफ भूमिका ली है। आज की परिस्थिति में यह कुछ आश्वस्त करने वाली बात है। परिवर्तन की प्रक्रिया तो मात्र राजनीतिक नहीं, सामाजिक होती है। लेकिन शासनकर्ताओं का आशीर्वाद न होने से दंगाईयों को भी संदेश जाता है, जिससे विपरित आज कीपरिस्थिति हैं।

सबसे खतरनाक बात है, भाजपा का यह स्पष्ट मानना कि हिंदू, बौद्ध, जैन, सीखों को पडोसी देशोंसे भारत में आ पहुचने पर भारतीय नागरिकता बहाल करनी होगी… मुस्लिमों को नहीं। इस धर्म आधारित नागरिकता की समूची बात संविधान के खिलाफ होते हुए आसाम में जनसंघर्ष से ही जनप्रतिनिधियों को झुकना पड़ा था। आज भारतीय जनता पार्टी ‘सिटिझनशिप अॅमेडमेंट बिल’ के रूप में पूरे देश में यही कदम उठाना चाहती हैं। तो क्या यह निर्णय अशांति और अत्याचार, अन्याय की नीव नही बनेगा? क्या यह असंवैधानिक नहीं? क्या चुनाव आयोग भी इस पर कारवाई नहीं कर सकता? जवाब दे।

आर्थिक विकास की अवधारणा

हम अब देखे आर्थिक विकास की अवधारणा। क्या फर्क है दोनो घोषणापत्रों में? समानता है ‘विकास’ को मंत्र बनाने में। भाजपा ने भी ‘ग्रामस्वराज’ की बात की है और कांग्रेस ने भी। लेकिन अपने संकल्प पत्र में भाजपा ने दिये ग्रामस्वराज के प्रमाण बिल्कुल ही अनोखे हैं। ‘‘हर किसी को समुचित संसाधन उपलब्ध कराते हुए ग्राम स्वराज का सपना पूरा’’ करने की अर्थहीन परिभाषा ही नहीं, ‘ग्राम स्वराज’ के इसमें उल्लेखित चार कार्यक्रम भी उस संकल्पना का अज्ञान सामने लाते हैं। ये चार आयाम हैः 2022 तक हर परिवार को पक्का मकान, 2024 तक प्रत्येक परिवार को पाइप से पानी की आपूर्ति,‘हाईस्पीडऑप्टिकल फायबर नेटवर्क’ द्वारा सूचना से ग्राम पंचायतो का सशक्तिकरण और ग्रामीण सड़क से गांवों को जोड़ने वाला सड़क से समृद्धि का कार्यक्रम। क्या गांधी के सपने का, गांव के संसाधनों से विश्वस्त का नाता और अधिकार, निरंतर स्वावलंबी विकास व संसाधनों को बचाने वाली सादगी भरी, जरूरत पूर्ति पर आधारित तकनीक और जीवन प्रणाली जैसे उद्देष्यों का कोई प्रतिबिंब इसमें है? गांधी को न समझे – न माने, किसी ने गांधीजी का नाम लेने से, गांधीवादी काम नही हो सकता, इसका यह उदाहरण मात्र है।

कांग्रेस तो गांधीजी के सपनों को सुनते, स्वीकारते, अपनाते निकला उन्ही के नेतृत्व में चले आंदोलन से उभरा एक राजनीतिक दल। राजीव गाँधी जी के नेतृत्व में संविधान के 73 व 74 वे संशोधन के द्वारा (अनुच्छेद 243) ग्रामसभा के हम सदस्य थे। प्रत्यक्ष में मध्य प्रदेश के उदाहरण से तो बात निकलती है कि जब मौका मिला तब भाजपा की शासन ने त्रिस्तरीय पंचायती राज का अधिकार और सम्मान भी छीन लिया, जिसके खिलाफ आक्रोश फूट पड़ा।

विकास, संसाधन और आजीविका

विकास की जपमाला तो दोनो पार्टीयों ने अपने हाथ में ले रखी है। उस जप में विकास की परिभाषा काफी हद तक निर्माण कार्य के रूप में प्रतिबिंबित हुई है, वही डिजिटलायझेशन का बडा भारी लक्ष्य भाजपा के संकल्प पत्र में अधोरेखित किया गया है। तो हर नागरिक का डिजिटल अधिकार कांग्रेस के घोषणा पत्र में भी झलका है। ‘समावेशी विकास’ नरेन्द्र मोदी जी का नारा जरूर बना है, लेकिन आर्थिक संपदा में या जल, जमीन, जैसे प्राकृतिक संसाधनों के बटवारे में, गैर बराबरी मिटाने के कोई कदम सुझाये नही गये हैं। अडानी, अंबानी, जैसे बडे कार्पोरेट घरानों की बढती संपत्ति और हर क्षेत्र में व्यवसाय पर कब्जा या प्रभाव के संबंध में कोई चर्चा या निर्णय इसमें नही झलकती है। विस्थापितों के मुद्दे पर कोई लब्ज तक नहीं कहा गया है भाजपा से, जबकि विकास के साथ जुड़ी हुई यह समस्या आज, शहरी एवं ग्रामीण, दोनो क्षेत्रो में जन आक्रोश का महत्व का कारण एवं मुद्दा हैं। काॅग्रेस ने 2013 में उन्ही से लाये गये नये ‘भू अधिग्रहण व पुनर्वास कानून’ के पूर्ण पालन का आष्वासन और आधार जताया हैं। भाजपा ने अध्यादेषों से वही कानून बदलना चाहा था। लेकिन सफल न होने पर उनकी सत्ता के राज्यों में कानून ही बदल दिया। 2013 का कानून नही तो विस्थापितों की सहभागिता, विकास में न्यूनतम विस्थापन का सिद्वांत या पुनर्वास की शर्त भी नहीं। ये कैसा विकास ?

वैसे देखे तो गरीबी उन्मूलन का दावा करते हुये भले भाजपा ने 2021 तक और काँग्रेस ने 2030 तक गरीबी का नामो निशान मिटाने की बात की है । 1991 में लायी वैश्वीकरण, औद्योगीकरण, निजीकरण की नीति लाने के लिए स्वयं की पीठ थपथपाते हुए, नयी प्रगतिशील औद्योगिक नीति बनाने का दावा भी किया है। क्या वही वैश्विक पूंजी रोजगार मूलक विकास का मुख्य आधार बनेगी? आज तक आयात-निर्यात-व्यापार के साथ ही देश में उत्पादन बढाने के लिए, दोनों ने घोषणाएं की है रोजगार बढाने की। भाजपा ने ‘स्टार्ट अप योजना’ के साथ ही ‘ईज आफ डुइंग बिजनेस’ को एक ओर तो मध्यम और लघु उद्योगों की सहायता की बात दूसरी ओर की है। लेकिन सभी जानते है कि पिछले बजट में केन्द्रीय वित्त मंत्री ने तो ‘एमएसएमई’ याने लघु और मझौले उद्योगों के लिए नही के बराबर, मात्र 3000 करोड़ का आवंटन किया था। इसके विपरित 4 से 5 सालों में लाखों करोड़ो रूपयों की छुट एक्साइज डयूटी और कस्टम्स डयूटी के रूप में दिये जाने वाले टैक्सों में छूट, केन्द्रीय शासकों ने देना, गैरबराबरी का अहम प्रतीक है।

उद्योग और रोजगार

बडे उद्योगों के बदले छोटे उद्योगों के लिए विशेष क्षेत्र या कार्य ‘आरक्षित’ करने की बात तो दोनो चुनाव पत्रों से गायब है… फिर भी कांग्रेस ने रोजगार को अहम महत्व और उसकी हासिली के लिए बारीकी दिशा निर्देश की भरमार की है। कांग्रेस का जोर रिक्त पदों को भरना एवं शासकीय, स्थानीय पदों की संख्या में बढोतरी करने पर अधिक है। भाजपा उद्योगों को लाईसेंस से मुक्ति, इन्फ्रास्ट्रक्चर में बढोतरी यही दिशा तय कर चुकी है। छोटे, मझौले उद्योगों को भी रोजगार से जोड़ने की ठोस बात कांग्रेस ने सामने रखी है। ग्रामीण विकास की दो योजनाएं नये सिरे से कांग्रेस से प्रस्तावित हैं, जो स्वागत योग्य हैं। इनमें आदिवासियों के विकास का विकेन्द्रित नियोजन और ग्राम स्वराज्य की दिशा में पहल संभव हैं। स्थानीय निकायों के (ग्राम पंचायत/ग्रामसभा) माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए, सूखे के संकट झेलते, हजारो गांवों के लिए प्यास बुझाने की दिशा हैः जलाशय निर्माण/पुननिर्माण और बंजर भूमि का पुनरूद्धार!

रोजगार का मुद्दां युवा मतदाताओं के लिए ही नही, बिना रोजगार वृद्धि (jobeless growth) के सभी नतीजे भुगतनेवाले इस देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। कांग्रेस ने इसे प्रथम स्थान दिया हैं, जिसे कोई नकार नही सकता। अर्थात एफडीआय, सार्वजनिक उद्योगों से वि-निवेश (disinvestment) के साथ साथ प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय आदिवासीयों का व अन्यत्र सभी ग्रामवासियों का अधिकार, दोनो को प्रस्तावित करने का कारण कांग्रेस की भूमिका में भी कुछ विरोधाभास है। उन्होने भी स्पष्ट रूप से स्थानीय-स्वदेशी और विदेशी पूंजी, निवेश और अधिकार के संबंध में स्पष्ट वक्तव्य सामने रखना जरूरी है। ‘पेसा‘ जैसा कानून, जो आदिवासी सुशासन पर आधारित है, उसी से पारंपारिक रोजगार बना रहेगा। काँग्रेस के ही कार्यकाल में पारित हुआ यह कानून और संविधान की धारा-243 भी! फिर भी उस पर पूरा अमल आज तक किसी पार्टी ने अपने राज्य में नही किया। भाजपा ने तो उसमें से ग्रामसभा की सहमति का मुद्दा हटाना चाहा था, यह खबर फैल ही गयी और केन्द्र के ही आदिवासी विकास मंत्रालय ने आपत्ति उठायी, तो चुनाव तक यह बात रूक गयी है। आगे क्या जाने?

पर्यावरण और वनअधिकार

भाजपा वन अधिकार के मुद्दे पर चूप हैं क्योंकि सर्वोच्च अदालत का फैसला उनकी पोल खोल चुका हैं। वन अधिकार कानून, 2006 पर कांग्रेस का वचन स्पष्ट हैं, जो है कानून के परिपूर्ण अमल का एवं कोई भी विसंगतियाँ हो तो दूर करके, सामुदायिक और व्यक्तिगत अधिकार के लिये प्रलंबित अर्जीयों का 6 महिने में निपटारा करने का। आदिवासियेां को वोट देने के लिये यह मुद्दा, निकष बनेगा जरूर।

भारत में 5 ट्रिलियन यानि 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था, जो विश्व की तीसरी बड़ी होगी, लाने की ख्वाहिश भाजपा ने हिम्मत के साथ पेश की है। 2025 तक यह हासिल करने की गतिमान दिशा अगर भाजपा अपनाये, तो विश्व स्तर की पूंजी का आक्रमण देश की प्रकृति, संस्कृति, ओर रोजगार पर होगा या नही, इसका जवाब जनता ने मांगना जरूरी हैं। पढें लिखे युवा अगर गहराई से पढेंगे तो देखेंगे कि मोदी शासन 100 लाख करोड़ रू का पूंजीनिवेश, बुनियादी ढाचें (infrastructure) पर करवाना चाहते है। लेकिन हर नागरिक यह तो जानता है कि 2032 तक 10 लाख करोड़ रू की अर्थ व्यवस्था बन भी जाये तो भी इसका मतलब यह नही कि 125 करोड़ में से हर भारतीय को 8 हजार रू भी मिलेगे! कभी नही !

कृषि और कृषक

भाजपा ने तो फिर एक बार घोषणा की है, कि उन्होने किसानों की फसलों के ढेड गुना दाम दे ही दिये है! ‘यह सच नही’ की बात कोई भी किसान साबित करेगा, और कुछ जरूरी नहीं कई रिपेार्ट, संघर्ष इससे आगे बढ़ ही उनकी इन घोषणा पत्रों से कृषि और कृषकों को क्या मिलना है यह बात जाचने की सबसे अधिक जरूरत है। किसान संगठनों ने अभूत समन्वय बनाकर दिखायी शक्ति काम आयी है। 2014 के चुनाव में स्वामिनाथन आयोग का ही आधार दोहराकर लागत के ढेड़ गुना दाम, हर फसल को देने की बात भाजपा कांग्रेस दोनो पार्टीयों ने स्पष्ट कही थी। इस बार दोनो प्रमुख पार्टीयों ने आयेाग को भूलकर ‘फसल को उचित दाम’ देने की बात कही हैय फिर भी ….. ठोस नही। 50 प्रतिशत अधिक दाम देने वाली बात तो गायब है। .. ‘करें पीछा बेहाल, बदहाल किसान!’ हमारे आदिवासीयों के पहाड़ी अनाज, सब्जी, मछली, वनोपज और पशुपालकों के दूध की उपज तक को न कर्जमाफी की बात भाजपा ने कभी मंजूर की है, न हि उस संबंधी कोई आश्वासन भी है। अमित शाह जी की वायरल हुई मुलाकात की विडियो से यह स्पष्ट है ही कि भाजपा ने कर्ज माफी का वादा ही कभी नही किया। कांग्रेस ने (कर्नाटक छोड़कर) अपने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान इन तीनों राज्यों में इस पर लिये निर्णय की बात सामने लायी है! किसान जानते है कि महाराष्ट्र में भाजपा शासन से कर्ज माफी, कड़े संघर्ष के बाद मंजूर होते के बाद भी, अमल में धोखाधडी हुई।…. तो फिर पिछले साल ही सत्ता पर आयी कांग्रेस की तीन राज्य सरकारों से अमल में त्रुटियाँ रही है, इस पर भाजपा कहां तक चुनौति दे सकेगी?

‘फसल बीमा’ को आगे बढाने की बात भाजपा के संकल्प पत्र में होना उतना ही खतरनाक है, जितना नोटबंदी और जीएसटी को सफल घोषित करना! इन योजनाओं से कॉर्पोरेटस को मिले करोड़ो-करोड़ो के लाभ जाहिर हैं इसलिए जनता ही जांचेगी सच-झूठ!

कृषि और कृषकों के संबंधी विविध समस्याओं का अंदाज और कुल प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार पर चर्चा-विचार, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी या भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी, भाकपा (माले), राजद, बिहार तथा वंचित बहुजन आघाडी (महाराष्ट्र) के विचारपत्रों में अधिक स्पष्ट है, यह निष्चित!

मछुआरों के बारे में सभी ने अपनी राय और योजना दी है क्यौंकि उनकी संख्या, वोट बँक काफी बडी है। लेकिन नदी घाटियों के मछुआरों का ही जलाशय में मत्स्यव्यवसाय पर अधिकार हो, ठेकेदारों का नहीं यह भूमिका न भाजपा ने ली है, न हि काँग्रेस ने। कांग्रेस ने मत्स्य व्यवसाय के लिये कृषि से अलग, स्वतंत्र मंत्रालय के साथ कुछ विशेष योजनाएं घोषित की हैं लेकिन इनके घोषणा पत्र में भी पारंपरिक मछुआरों को बचाने की भूमिका स्पष्ट नही है और सामूहिक प्राकृतिक व्यवस्था बचाने का दावा, सागरमाला और अन्य बडी और प्रकृति व आजीविका पर प्रभाव डालने वाली परियोजनाओं के चलते हुए स्वतंत्र मंत्रालय स्थापन करने से भी खरा नही उतर सकता।

महिलाओं की सुरक्षा और आत्मसम्मान

महिलाओं के खिलाफ अत्याचार पर भूमिका लेना स्वाभाविक है। लेकिन न्या. जे. एस. वर्मा कमिटी के ठोस सुझावों को सभी भूल कैसे गये, यह सवाल बाये से दाये तक, हर पार्टी के सामने करना जरूरी है। महिलाओं के आरक्षण पर कईं दशकों से या तो भ्रमित या विभाजित है, हर दल या विधानसभा भ्रमित कर रहें हैं जनता को। आज भी इस मुद्देपर एकवाक्यता नही है। मात्र वामपंथियों ने ही लोकसभा-राज्यसभा में महिलाओं को 50 प्रतिशत स्थान चाहा है और वंचित बहुजन आघाडीने सभी आयोगों में भी महिलाओं को 33 प्रतिशत स्थान देने की बात कही है। भ्रूण हत्या के बावजूद करीबन 50 प्रतिशत महिलाओं की जनसंख्या सुरक्षित रखने के बाद भी क्यों हो 33 प्रतिशत?

महिलाओं को पूंजी-बाजार पर आधारित अर्थव्यवस्था के सिद्धान्त और स्वार्थ के चलते वस्तुकरण और उसी से अमानवीय हिंसा तक भुगतने पड रही है, यह वास्तवता कही छुपा के रही है।

नशामुक्ति ? अवैध रेत खनन ?

नशामुक्ति की बात ही संवैधानिक (अनुच्छेद 47) मार्गदर्षक सिद्वांत होते हुए किसी पार्टी को मंजूर नही दिखायी देती। महिलाओं ने जगह जगह वोट न देने की धमकी के बावजूद घोषणा पत्र इस पर मूक हैं। कोई पार्टी तैयार नही है, शराब का व्यापार छोड़ने और गुजरात मॉडल इस मुद्दें पर अमल में लाने! मात्र ‘नशामुक्ति अभियान युवाओं के बीच चलाने, तक ही इस मुद्दें को ले जाना चाहती है मोदी जी की पार्टी भी।

पर्यावरण के विनाश में अवैध खनन का बड़ा योगदान जानती है जनता! कांग्रेस ने इसे रोकने की बात की है। नर्मदा घाटी में कांग्रेस और भाजपा, दोनो ने यात्राएं निकालते इन मुद्दों को प्रचारित किया। कोर्ट के आदेश हमने पाये हैं। फिर अब घोषणा पत्र में आष्वासित बात पर भरोसा तभी होगा, जब मध्यप्रदेश जैसे उन्ही के हाथ सौपे गये राज्य में इस पर अमल होगा। भाजपा के घोषणा पत्र की तुलना में पर्यावरण के मुद्दें पर कांग्रेस ने विस्तृत सोच रखी हैं इसे नकार नही सकते… कटीबद्वता के साथ अमल की अपेक्षा कब तक करें? पर्यावरणीय कानूनों में भाजपा ने लाये बदलावों पर पुनर्विचार का भरोसा रखे?

कर्जदारी और बैंकिंग के घोटालों के आगे क्या?

दुनिया के स्तर की विस्फोटक स्थिति के वर्णन की एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार का आधार बनाने के बदले, भारत को गरीबी निर्मूलन में आज पाये हुये 110 वे क्रमांक से उपर उठाने की मंशा कहीं व्यक्त नही की गई है। अन्तर्राष्ट्रीय साहूकारी संस्थाओं से कर्जदार भारत का चित्र तक इन चुनावी पत्रों में स्पष्ट नहीं है न हि पाकिस्तान से भी शकर और प्याज का व्यापार करने वालो ने पडोसी राष्ट्रों को व्यापार में प्राथमिकता की शर्त घोषित किये है।

भारत की अंदरूनी कर्जदारी में फसे और फसाते रहे नीरव मोदी, विजय माल्या, के बारे में कुछ न कहते हुए धोखा देकर भागने वालों को नियंत्रित करने वाले कानून की घोषणा भाजपा को शोभा नही देती। क्या आज के कानूनी दायरे में कडी कार्यवाही असंभव थी या हैं? जवाब चाहिए!

देशांतर्गत बैंकिंग सुरक्षित करने, कर्जदायकता बढाने की बात है लेकिन ‘नॉन परफार्मिंग अॅसेट्स’ (एन.पी.ए.-निरूपयोगी रही उद्योगपतियों की 10 लाख करोड़ की संपत्ति) पर कांग्रेस के घोषणा पत्र में कड़ी टिप्पणी हैं, भाजपा के संकल्प पत्र में नहीं! इस संकट से उभरने के लिये ठोस सुझाव, मात्र वामपंथी पार्टियों के विचारपत्रों में है। यह कैसे? क्या दोनो प्रमुख पार्टीयां उद्योगपतियों को नाराज नही करना चाहती?

रिजर्व बैंक के अन्तर्गत जनतांत्रिक प्रक्रिया की बात भाजपा करती है लेकिन उनकी सहमति के बिना नोटबंदी की गयी, यह अब जाहीर है, तो उनका दावा झूठा साबित होता है। बैंको से, खाते में न्यूनतम रकम रख नही पाने वाले गरीबों से बैंको ने की हैं करोड़ो की लूट, लेकिन दोनो घोषणा पत्रों नें इस मुद्दें पर दी हैं छूट!

शिक्षा और स्वास्थ्य

बहुत सारे जनसंगठनों ने आवाज उठाने पर दोनो पार्टीयों ने और अन्यों ने भी शिक्षा का बजट 10 से 12 प्रतिशत तक और स्वास्थ्य का बजट भी 6 प्रतिशत बढाने की घोषणा तो की है, लेकिन वह किस पर खर्च होगा? नई आधुनिक तकनीक, इनोव्हेटिव्ह लर्निग पर? इसमें उच्च शिक्षा संस्थानों में सीटे बढाने की बात हैं लेकिन हजारो शासकीय, प्राथमिक शालाएं बंद की गई है-तो क्या कहें? किसे कहे? शिक्षा का निजीकरण, व्यापारीकरण पर घोषणा पत्रों में विशेष नजरिया का अभाव हैं।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी ‘जन आरोग्य बीमा योजना’ का लाभ निजी अस्पतालों को अधिक होने की समीक्षा केन्द्र के शासनकर्ताओं को मंजूर नही हैं। इसलिए भाजपा के संकल्प पत्र में इस क्षेत्र में काफी सारी सफलताओं का दावा किया हुआ हैं….. जैसे हर तीन संसदीय क्षेत्रो में एक अस्पताल! क्या यह सब 5 सालों में हुआ है? शासकीय अस्पतालों की गुणवत्ता सुधरी हैं? 17,150 नये स्वास्थ्य व कल्याण केन्द्र स्थापित होने का दावा हैं। अगर नन्दुरबार (महाराष्ट्र) जिले की हकीकत देखे तो 177 केन्द्रों की योजना होकर भी एक भी आज तक चालू नही हुआ हैं। ये केंन्द्र पुराने केन्द्रों का भी उद्वार हैं, कई जगह। कर्मचारीयों का प्रशिक्षण या केन्द्र का निर्माण कार्य पिछे पड़ा हैं, दावा आगे बढा हैं।

ताजी स्थिति

छत्तीसगढ में 1,70,000 हेक्टर जमीन आदिवासी ग्रामसभा या जनप्रतिनिधियों की सलाह सूचन के बिना खदानों को देनेका काम तथा 8 हवाईजहाज अड्डे अदानी को देने का और जिसकी पोल खोल काफी हो चुकी है वह राफेल डील अनिल अंबानी के साथ करने का अर्थ क्या है, प्राकृतिक व सांपत्तिक संसाधनों का कंपनियेां को हस्तांतरण! इस अनुभव के चलते जनतंत्र और पर्यावरण, दोनों मुद्दोंपर जो भी आश्वासन भाजपा से दिये गये है, उसे स्वीकारना असंभव है।

इन मुद्दों पर काँग्रेस ही नही, तमाम विरोधी दलों ने, कानूनी उल्लंघन को लेकर क्या भूमिका ली, क्या किया, यह जांचना जरूरी है। जैसे कोंकण की धरती पर पष्चिम घाट में, या नर्मदा, गोदावरी की घाटी में बड़ी परियोजनाएं, और कॉलनी के जंगल पर अतिक्रमण इत्यादी अनुभवों का इतिहास आधार हैं।

सर्जिकल स्ट्राइक्स, पुलवामा में आतंकवाद और फिर जवाब आदि की बात भाजपा ने उछाली है जरूर किन्तु बिना साबिती! आंतरराष्ट्रीय रिश्ते, पडोसी राष्ट्रों से संबंध और व्यवहार तथा शांतिप्रियता के संदर्भ में संकल्प पत्र में कथनी से करनी बिल्कुल विरोधी हैं! यह जानने वालों को दावे और सपने भी फिजूल लगेंगे, ऐसी स्थिति है। तो भी बार बार उसे सफलता के रूप में दोहराकर उससे मतदाताओं को उद्वेलित करने की पूरी कोशिश अपने संकल्प पत्र के अलावा प्रचार-प्रसार के द्वारा भी भाजपा कर रही है। मतदाता जागरुक रहें।