धर्म, राजनीति और न्याय

   

जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में एक आठ वर्षीय बच्ची से बलात्कार और उसकी हत्या के मामले में न्याय तो हो गया, लेकिन इस प्रकरण में लहूलुहान हुई इंसानियत को क्या नई जिंदगी मिल पाएगी? पठानकोट की एक विशेष अदालत ने सोमवार को कठुआ कांड में छह लोगों को दोषी करार दिया। सातवें आरोपी, यानी मुख्य आरोपी सांझीराम के बेटे विशाल को बरी कर दिया गया है। मामले में हेड कांस्टेबल तिलक राज और सब इंस्पेक्टर आनंद दत्ता को भी दोषी ठहराया गया है, जिन पर सांझीराम से चार लाख रुपये लेकर सबूत मिटाने का आरोप था।

पंद्रह पृष्ठों की चार्जशीट के मुताबिक पिछले साल 10 जनवरी को अगवा की गई आठ साल की मासूम बच्ची को कठुआ जिले में एक गांव के मंदिर में बांधकर रखा गया और उससे दुष्कर्म किया गया। जान से मारने से पहले चार दिन तक उसे बेहोश रखा गया। उसका शव 17 जनवरी को मिला और पोस्टमार्टम में सामूहिक बलात्कार और हत्या की पुष्टि हुई। लेकिन इसके बाद जो खेल शुरू हुआ उसने हमारे समाज की पोल खोलकर रख दी। एक तबका पीड़िता के साथ सहानुभूति जताने के बजाय पूरे मामले को झुठलाने में जुट गया और निर्लज्जता के साथ उसने अभियुक्तों का बचाव शुरू कर दिया। चार्जशीट सामने आते ही उस पर सवाल उठाए जाने लगे। कुछ वकीलों ने चार्जशीट को गलत ठहराते हुए मामले की सीबीआई जांच की मांग की। यहां तक कि उन्होंने चार्जशीट दाखिल करने पहुंची क्राइम ब्रांच टीम को अदालत पहुंचने से रोकने की कोशिश की।

एक धार्मिक-राजनीतिक संगठन ने खुलेआम अभियुक्तों के पक्ष में अभियान छेड़कर इसे हिंदू-मुस्लिम का मामला बना दिया। हद तो तब हुई जब तत्कालीन पीडीपी-बीजेपी सरकार के दो मंत्री भी इसमें कूद पड़े, जिनकी बाद में सरकार से छुट्टी करनी पड़ी। अंतत: 7 मई 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने यह केस कठुआ से हटाकर पंजाब के पठानकोट में स्थानांतरित कर दिया, जहां बंद कमरे में मामले की सुनवाई बीते 3 जून को पूरी हुई। हमारे दिलों का बंटवारा आज इस कदर हो चुका है कि बलात्कार और हत्या जैसी जघन्य घटना में भी हम पीड़ित और अभियुक्त का धर्म और जाति देखने लगे हैं। संवेदना हमारी इस कदर मर गई है कि एक मृतक और हत्यारे की सामाजिक पहचान देखकर तय करते हैं कि किसके साथ खड़ा होना चाहिए।

कठुआ की घटना में खासकर सोशल मीडिया पर जैसा बंटवारा दिखा, उससे लगा कि एक समाज के रूप में शायद हमें फिर से अपनी खोज करनी पड़े। और यह कोई अकेला मामला नहीं है। कठुआ की घटना के बाद मासूम बच्चियों से दरिंदगी के कई और हादसों में भी यही रुझान देखने को मिला है। यह बीमारी अगर जल्दी दूर नहीं हुई तो कानून-व्यवस्था से जुड़ी संस्थाओं के लिए ठीक से काम करना असंभव हो जाएगा। ऐसी घटनाओं पर जजमेंटल होने से अच्छा है, हम सिस्टम को अपना काम करने दें और जरूरी लगे तो उसे अधिक सक्षम और तत्पर बनाने के लिए आवाज उठाएं।

साभार: नवभारत टाइम्स