फुटपाथ किताब बाजार का कत्ल

,

   

आप इस मौत पर ज़रूर अपने अपने दो आंसू बहाना चाहेंगे । इस मौत पर दिल्ली के पढ़े लिखे लोगों , पढने वालों और दानिशमंदों ने भी जी भर के आंसू बहाने की कोशिश की । इतने आंसू बहाने पर दिल्ली में बाढ़ नहीं आई क्योंकि इस मौत के सदमे में हरेक समझदार आदमी इतना दुखी था कि उसकी आंख के आंसू जम गए और कुल मिलाकर दो आंसू निकले जैसे आंसूओं ने इस जुमले पर अमल किया हो कि दो के बाद बस ।

गुमनाम मौत का माजरा क्या है । यह ऐसी मौत है जिसकी ख़बर सुर्खी नहीं बनी, ऐसी मौत है जिसके बाद जनाजा नहीं निकला और शोक सभा नहीं हुई । यह कुदरती मौत नहीं बल्कि कत्ल है ,एक 54 साल जवान रहे अहसास का , मददगार रहे बाज़ार का, इल्म का खजाना बांटते रोज़गार का । कत्ल हुआ पुरानी दिल्ली दरियागंज में उस फुटपाथ पर जहां हर रविवार हजारों लोग ज़रूरत की किताबें खरीदने आते थे ।

ट्रैफिक और लॉ एंड आर्डर की दुहाई देते हुए दरियागंज के बुक्स बाज़ार को इतिहास का पन्ना बनाते हुए शहीद कर दिया गया । जिस रविवार हादसा हुआ उसे ब्लैक सन्डे कहा जा सकता है । उसी दिन दिल्ली और एन सी आर के कई शहरों से किताबों की तलाश में हजारों नौजवान, बच्चे, बुजुर्ग पहुंच गए थे । वहां किताबों की दुकान लगाने वाले भी थे । यह बाज़ार पिछले 54 साल से गैर कानूनी तरीके से लगाया जा रहा था ।

क्या सरकारी अमले को एक्शन के सही वक्त की तलाश में 54 साल लगते हैं । इस बाज़ार की शहादत तब हुई जब ये समूचे हिन्दुस्तान और आस पास के मुल्कों में मशहूर हो गया । यहां सस्ते से सस्ते दाम पर बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी वे किताबें मिल जाती थी जो दिल्ली में कहीं नहीं मिलती थी । ये बाज़ार उन नौजवानों के लिए सचमुच गरीब नवाज़ था जो बड़ी रकम खर्च करके महंगी किताबें खरीद नहीं सकते थे ।

इस बाज़ार में विदेशी किताबें और रिसाले भी बिकते थे । हर जुबा की किताबें, रिसाले, ग्रन्थ खरीदते लोग यहां दिखाई देते थे । इल्म के इस खजाने के समंदर में अपनी ज़रूरत की तलाश करते यहां देश विदेश के लोग दिखाई देते थे । अब ये नज़ारा देखने को नहीं मिलेगा मगर बुकलवर्स के दर्द का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता ।

क्या इस शहादत पर कोई गांधीगिरी नहीं करेगा और दिल्ली नगर निगम और दिल्ली पुलिस को गुलाब नहीं भेजेगा । नौ साल पहले ऐसा हादसा हुआ था मगर लोगों की कारगर आवाज के बाद मुर्दे को ऑक्सीजन देकर जिंदा किया गया था।