भारतीय राजनीति में मुसलमानों की दशा और दिशा

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भारतीय राजनीति में मुसलमानों को हमेशा छला गया है। सिर्फ राजनैतिक रैलियों और आयोजनों में भींड़ तक ही रहने पर मजबूर किया गया है, मुसलमानों की राजनीतिक दशा और दिशा की बात करें तो हाल ही दो लेख लिखे गए हैं इसपर, पहला हर्ष मंदार का और दूसरा उसका जवाब प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने दिया।

मंदार ने कांग्रेस और पार्टी के उस दलित नेता की आलोचना की जिसने मुसलमानों को अपनी रैलियों में भारी संख्या में शामिल होने को तो कहा लेकिन ताकीद की वो अपनी टोपी और बुर्के के बिना आएं। उनकी इस बात की आलोचना गुहा ने की और कहा कि मंदार बुर्के के पीछे छिपी धार्मिक कट्टरता को नहीं पकड़ सके।

इन दोनों लेखों में बहस का मुख्य मुद्दा यह है कि क्या भारतीय राजनीति में भाजपा की तरह ही कथित सेक्युलर पार्टियां मुसलमानों को हाशिए पर धकेल रही हैं? लेख में इस बात भी चर्चा हुई है कि क्या लंदन के मेयर सादिक खान जैसे और नेता मुसलमानों के बीच से सामने आ सकते हैं या फिर भारतीय राजनीति सादिक खान या बराक ओबामा जैसे शानदार राजनीतिज्ञों को सामने लाने में सहायक साबित हो सकती है अथवा नहीं?

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुओं और मुसलमानों ने खूब मोर्चा लिया था। इस युद्ध के बाद वैसे तार्किक रुप से होना ये चाहिए था कि देश में हिंदू और मुसलमान मिलकर एक साथ शांति से रहें लेकिन देश की मुस्लिम लीडरशिप ने अपने लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान का राग अलापना शुरु कर दिया।

1947 में देश का धार्मिक आधार पर बंटवारा होने और हिंदुस्तान बनने के बाद हिंदू नेतृत्व ने भी भारत में बचे मुसलमानों को अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया। उस समय राजनीतिक दलों ने भी उनकी मदद के लिए अपनी पार्टियों में अल्पसंख्यक विंग का गठन कर एक तरीके से उन्हें बराबर के नागरिकों से अलग करके दूसरे खांचे में बांध दिया।

मुसलमानों को अलग मानने में कोटा की राजनीति और दंगों के अलावा मुस्लिम धर्म गुरुओं को भी बड़ा योगदान रहा। इधर हिंदुओं ने भी मुसलमानों को अलग-थलग करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी चाहे वो सेक्युलर हिंदू हों या कट्टर हिंदू, दोनों ने मुख्यधारा से उन्हें अलग रखने की कोशिश की। जवाहरलाल नेहरु से लेकर सोनिया गांधी और अरविंद केजरीवाल से लेकर अखिलेश यादव सभी ने मौलवियों को प्रश्रय देकर उनका मुसलमानों पर प्रभाव बढ़ाने में सहायता ही की।

1970 के दशक और उसके बाद यहां के मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अरब से चंदा इकट्ठा करके देश में कट्टरपंथी वहाबी इस्लाम को बढ़ावा देना शुरु किया और दूसरा जब मिडिल ईस्ट देशों से मुस्लिम कामगार वापस लौटे तो उन्होंने भारतीय इस्लाम को परिपूर्ण मानने से इंकार कर दिया। नाजिया ईरम ने इस संबध में अपनी किताब ‘मदरिंग ए मुस्लिम’ में लिखा भी है।

इस किताब में ईरम एक भारतीय मुसलमान के द्वारा कही गयी बात को उद्धृत करते हुए कहती है कि सउदी अरब से लौटा एक मुसलमान यहां के मुसलमानों से इस्लाम के बारे में इस तरह से बात करता है जैसे वो किसी गैर मुस्लिम से बात कर रहा हो। इस प्रक्रिया ने देश में बुर्के के प्रचलन को आगे बढ़ाया जो कि कुछ दशक पहले देश में शायद ही कहीं दिखता रहा हो।

रामचंद्र गुहा बुर्का के बारे में लिखते हैं कि बुर्का भले ही हथियार नहीं हो लेकिन इसका गहरा सांकेतिक मतलब है और ये त्रिशूल के जैसा ही है। गुहा के मुताबिक बुर्का प्रतिक्रियात्मक और रुढ़िवादी आस्था का प्रतीक है। कभी-कभी कपड़ा कपड़ा न होकर एक विचार में तब्दील हो जाता है।

बुर्का के साथ चयन नहीं जुड़ा होता है। इसे ऐसे समझ सकते हैं, मान लीजिए उदाहरण के तौर पर अगर शोभा डे बुर्का पहनना चाहें तो ये उनकी इच्छा पर निर्भर करेगा लेकिन बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं के लिए बुर्का पहनना जरुरी होता है। बुर्का उनके दिमाग को वश में करने वाला साबित होता है। गुहा सही कहते हैं कि उदार लेखकों को मुस्लिम समाज की रुढ़िवादिता पर प्रश्न उठाना चाहिए।

जहां गुहा उदार लेखकों के मुस्लिम समाज में फैली रुढ़िवादिता को चुनौती देने में नाकामयाब रहने की बात उठाते हैं, वहीं मंदार का अपना विश्लेषण भी सटीक है। मदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के न्यू इंडिया में हिंदू-मुसलमान मुद्दे के एक पक्ष को संबोधित कर रहे हैं। मुसलमानों को समाज की मुख्यधारा से अलग करने की कोशिश हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने वाली भाजपा और आरएसएस से जुड़े संगठन करने में लगे हैं।

इस लेख के लेखक ने हाल ही में सोशल मीडिया में वायरल दो वीडियो को देखा। पहले वीडियो में था कि हिंदू युवाओं का एक समूह एक बूढ़े मुसलमान को रोकता है और उन्हें जबरदस्ती जय श्री राम का नारा लगाने को कहता है। दूसरे वीडियो मे हिंदू युवाओं का एक समूह एक बस को रोकता है और उसमें सवार एक उम्रदराज मुसलमान से पूछता है कि बस के पीछे पाकिस्तानी झंडा क्यों लगा हुआ है।

जब वो वृद्ध मुसलमान इससे अनभिज्ञता जाहिर करता है तो उसे और उसकी मां को जमकर गालियां दी जाती हैं। युवकों का समूह उस मुस्लिम को पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगाने को कहा जाता है। यहां ये बात महत्वपूर्ण है कि इन दोनों जगहों पर मुसलमानों की पहचान उनकी टोपी और दाढ़ी से हुई। यहीं पर गुहा गलत हैं और मंदार सही।

गुहा इस तथ्य को नजरंदाज करते हैं कि कपड़ों को भी किसी संप्रदाय के खिलाफ नफरत का आधार बनाया जा सकता है। ये नफरत एक विशेष तरह की राजनीतिक संस्कृति में पैदा होती हैं और इसे एक विशेष तरह के राजनीतिक दल, धार्मिक संगठन और उसके नेताओं का संरक्षण भी मिलता है।

मुस्लिम महिलाओं के दिमाग को वश में करने के लिए बुर्के की निश्चित रुप से आलोचना होनी चाहिए लेकिन टोपी और दाढ़ी तो भारतीय मुसलमानों की धर्मनिष्ठता की परंपरागत पहचान रही हैं।

भाजपा हिंदुत्व के नाम पर भारतीयों को हिंदू और मुसलमान के रुप में बांटने पर लगी हुई है, ठीक उसी तरह से जिस तरह से कभी सेक्युलर पार्टियों ने जातियों के नाम पर भारतीयों का बंटवारा किया। आजादी के बाद से भारतीय जनता पार्टी पहली ऐसी सत्तारुढ़ पार्टी बनी है जिसके लोकसभा में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है। आकार पटेल ने इस मामले पर ध्यान आकृष्ट कराते हुए कहा भी है कि भाजपा के पास गुजरात, यूपी, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी कोई मुस्लिम विधायक जीत कर नहीं आया है।

चलिए इसको गुजरात मॉडल की पॉलिटिक्स मान लेते हैं, जहां राष्ट्रभक्ति केवल जय श्रीराम और भारत माता की जय के नारों से नापी जाती है। आज ये नारे मुसलमानों को जरूरत के हिसाब से डराने में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। एंटी मुस्लिम राजनीति को भुनाने के लिए जगह-जगह तिरंगा यात्रा निकाली जा रही है। मंदर और गुहा दोनों के पास अपनी सटीक दलीलें हैं, जहां मंदर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में मुसलमानों का भूमिका पर अपनी राय रख रहे हैं वहीं गुहा इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि विकृत उदार राजनीति ने मुसलमानों का बेड़ा गर्क किया है।

मुसलमानों के लिए आज के समय में केवल दो बातें जरूरी हैं, पहली सर सैयद अहमद की बात जो कि मुसलमानों की बेहतरी के लिए शिक्षा पर जोर देने की वकालत करते रहे और दूसरी दलवई की बात जो कि मुसलमानों को समान नागरिक समझने पर गौर करने को कह रहे हैं। उदार लेखकों ये बात समझनी चाहिए कि हमारा संविधान 6-14 साल तक सभी बच्चों को मुफ्त अनिवार्य शिक्षा एक जायज विद्यालय से ग्रहण करने का अधिकार देता है न कि मदरसा, गुरुकुल और हिंदू स्कूलों से।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ये सोचना गलत होगा कि मुस्लिम समाज या भारतीय शासन व्यवस्था में सादिक खान या बराक ओबामा जैसे नेताओं का उदय होगा। पहचान की राजनीति का मतलब प्रजातंत्र से अलग हो जाना नहीं है लेकिन मंदार को अपने पहचान की राजनीति पर जोर देने से थोड़ा अलग हटकर गुहा की इस बात का समर्थन करना चाहिए कि उदारवादियों को हिंदू और मुसलमान दोनों कट्टरपंथियों की आलोचना और विरोध करने का साहस होना चाहिए। वैसे मंदार और गुहा दोनों अपनी अपनी जगह आलोचनाओं में सही हैं और एक दूसरे के पूरक हैं।