भीड़ की मानसिकता से उपजी हिंसा अब निजी प्रतिशोधों तक पहुंची

   

दिल्ली की एक बसावट में पिछले हफ्ते अचानक दो पक्षों के लोग उमड़ पडे़। विवाद पार्किंग का था, पर न जाने कैसे उसने सांप्रदायिक रूप ले लिया। आदतन, दोनों पक्ष पुलिस थाने में इकट्ठा हुए। शुरुआती दौर में लगा कि विवाद शांत हो गया है, पर नहीं। उत्तेजना की आंच धीमे-धीमे सुलग रही थी। एक समुदाय विशेष के बीच इसे दावानल बनाने की कोशिशों में जुटे कुछ लोग चुपके-चुपके अपना काम कर रहे थे। नतीजा कुछ ही देर में सामने आ गया। दूसरे समुदाय के एक धार्मिक स्थल में तोड़-फोड़ कर दी गई और सोशल मीडिया के अदृश्य जादूगरों ने इसे वायरल कर दिया। हकबकाई पुलिस ने बात को किसी तरह आगे बढ़ने से रोका। अब मामला शांत है।

हंगामा गुजर जाने के बाद दोनों पक्षों के ‘समझदार लोग’ सामने आए और तय हुआ कि जिस समुदाय के लोगों ने उपासना स्थल को हानि पहुंचाई थी, वही उसकी मरम्मत कराएंगे। यह तो सिर्फ एक घटना है। पूरे देश में नजर दौड़ाने पर हम पाएंगे कि ऐसी सांप्रदायिक उग्रता हमारे सामाजिक ताने-बाने पर हावी होती जा रही है। पिछले दिनों झारखंड के एक गांव में लोगों ने एक चोर को पकड़ लिया। उसे मारा और दूसरे धर्म के आराध्य के जयकारे लगाने पर बाध्य कर दिया।

पुलिस ने अधमरी हालत में उस शख्स को गिरफ्तार कर लिया, पर बाद में उसने जेल में दम तोड़ दिया। मारे गए युवक के समुदाय के लोगों का कहना है कि यह ‘मॉब लिंचिंग’ है, जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट तकनीकी आधार पर इसे खारिज करती है। ऐसा लगता है कि हमारे तर्क और तकनीक समुदायों अथवा सत्ताधीशों के लिए सहूलियत का सौदा बन गए हैं। इससे सांप्रदायिक शक्तियों को खुलकर खेलने के अवसर लगातार हासिल हो रहे हैं। भरोसा न हो, तो इस घटना के तत्काल बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में हुई प्रतिक्रिया पर नजर डाल देखें। वहां सैकड़ों लोग नारे लगाते हुए सड़कों पर उतर आए। ध्यान दें।

झारखंड के जिस गांव में घटना हुई, वह शांत था। पड़ोसी शहर-गांव चुप थे। आजू-बाजू के बंगाल और बिहार हलचल विहीन थे, पर सैकड़ों किलोमीटर दूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रतिक्रिया हो रही थी। ऐसे ही दृश्य महाराष्ट्र के मालेगांव में दिखाई दिए। कोई गारंटी नहीं कि देश के अन्य हिस्सों में भी यही पटकथा इस्तेमाल होती दिखाई दे। जाहिर है, सोशल मीडिया के उफान के इस दौर में गम-गुस्से को भौगोलिक दायरे में सीमित नहीं किया जा सकता। यह प्रवृत्ति इतनी खतरनाक बनती जा रही है कि इसे सिर्फ भीड़ की प्रतिक्रिया का नाम देकर छुटकारा पा लेना उचित नहीं होगा।

इस उदाहरण पर गौर फरमाएं। इन्हीं हंगामाखेज दिनों के बीच मेरठ शहर के एक मोहल्ले में कुछ लोगों ने अपने आवासों पर बोर्ड टांग दिए- मकान बिकाऊ है। वजह? खास समुदाय के लोग मोहल्ले में मोटर साइकिलों के जरिए स्टंटबाजी करते हैं और महिलाओं पर फब्तियां कसते हैं। मीडिया में हो-हल्ला मचने के बाद पुलिस-प्रशासन ने किसी तरह मामला सुलटाया, पर जब इन तख्तियों को टांगने वालों से पूछा गया कि यदि आप परेशान थे, तो आपने पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं दर्ज कराई? कोई प्रतिनिधिमंडल आला अधिकारियों अथवा जन-प्रतिनिधियों के पास क्यों नहीं गया, तो गोलमोल जवाब मिला। मतलब साफ है, मंशा मकान बेचने की नहीं, ध्यान आकर्षित करने की थी।

जब मेरठ में यह हो-हल्ला मच रहा था, तब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक अन्य स्थान पर दूसरे समुदाय के लोगों ने भी ऐसी ही तख्तियां टांग रखी थीं। तथाकथित सांप्रदायिक ज्यादती से घबराकर पलायन की बात करने वाले ऐसे लोग क्या वाकई इतने डरे हुए हैं? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अगले दिन इसका उत्तर भी दिया कि प्रदेश में कहीं भी पलायन की स्थिति नहीं है। यह एक राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि सच्चाई है, क्योंकि ऐसी तख्तियां सिर्फ वक्ती तौर पर अपना कारथ साधने के लिए लगाई जाती हैं।

मतलब साफ है कि भीड़ की मानसिकता से उपजी हिंसा अब निजी प्रतिशोधों तक पहुंच गई है। अगर यह प्रवृत्ति ऐसे ही शहरों, मोहल्लों और गलियों पर कब्जा जमाती गई, तो हम कहां पहुंच जाएंगे, यह बताने की जरूरत नहीं। एक और बात। पहले ‘समझदार लोग’ अपने मोहल्लों में शांति बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। अब उनकी भूमिका सीमित हो गई है। वे ‘आग’ को तो नहीं रोक पाते, पर बाद में अमन कायम करने में जरूर अपना योगदान करते हैं। दिल्ली की घटना इसकी ताजातरीन मिसाल है। समझ और समझदारों का यह क्षरण चिंतित करता है। यही वह वक्त है, जब हमें अपने राजनीतिज्ञों को कहना होगा कि वे सियासत के लिए सामाजिक भावनाओं से खेलना बंद करें।

मैं यहां विनम्रतापूर्वक आजादी की पहली लड़ाई का स्मरण करना चाहूंगा। 1857 की क्रांति महज सैनिक विद्रोह नहीं थी। मंगल पाण्डे की बगावत के बहुत पहले से सैनिक छावनियों में संत और फकीर चक्कर लगा रहे थे। रोटी और कमल के जरिए वे आजादी का संदेश रोपने की कोशिश कर रहे थे। अंग्रेज इन सरगर्मियों से चौकन्ना तो हुए, पर इसे रोक नहीं पाए। झटका खाने के बाद उन्हें मालूम पड़ा कि अगर वे भारत की सांप्रदायिक एकता को नहीं तोड़ेंगे, तो उन्हें बार-बार ऐसे ही हालात का सामना करना पडे़गा। उन्हें यह भी याद आया कि 1757 में जब रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी की लड़ाई जीतकर सुनिश्चित किया था कि भारत में अब ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व होगा, तब अकेले मुर्शिदाबाद शहर में समूचे इंग्लैंड के शिक्षा संस्थानों से अधिक मदरसे और पाठशालाएं थीं। वह परंपरा 1857 तक कायम थी। इसीलिए संत और फकीर एक ही वाणी बोलते थे।

1857 की जंग के बाद जब महारानी विक्टोरिया ने भारत की कमान सीधे संभाली, तब इस ताने-बाने को तोड़ने की योजनाबद्ध कोशिश हुई। 1947 में देश का विभाजन भी इसी की उपज था। अंग्रेज आजादी का आंदोलन तो नहीं दबा पाए, पर हमे खंडित स्वतंत्रता जरूर सौंप गए। समय आ गया है, जब हम खुद से पूछें कि हम अंग्रेजों के बोए बबूल कब तक काटते रहेंगे?

हिंदुस्तान डॉट कॉम से साभार