मुगले-आजम’ की पटकथा को ऑस्कर की लाइब्रेरी में शामिल किया गया !

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दिनेश ठाकुर
नजीर बनारसी की एक लोकप्रिय गजल का मतला है- ‘ये इनायतें गजब की, ये बला की मेहरबानी/ मेरी खैरियत भी पूछें किसी और की जुबानी।’ हॉलीवुड से ‘बला की मेहरबानी’ की खबर आई है कि के. आसिफ के क्लासिक शाहकार ‘मुगले-आजम’ की पटकथा को ऑस्कर की लाइब्रेरी में शामिल कर लिया गया है। इत्तेफाक है कि 1960 की इस फिल्म ने 5 अगस्त को सिनेमाघरों में पहुंचने के 60 साल पूरे किए हैं। ऑस्कर वालों की दरियादिली समझ से परे है। आज तक किसी भारतीय फिल्म को ऑस्कर नहीं दिया गया, लेकिन करीब डेढ़ दर्जन भारतीय फिल्मों की पटकथा उनकी लाइब्रेरी में शामिल की जा चुकी हैं। इनमें ‘एक्शन रिप्ले’ (अक्षय कुमार), ‘युवराज’ (सलमान खान), ‘गुजारिश’ (ऋतिक रोशन) और ‘राजकुमार’ (शाहिद कपूर) जैसी पिटी हुई फिल्में भी शामिल हैं। दुनियाभर के सिनेमा पर शोध करने वाले इस लाइब्रेरी में आकर जान सकते हैं कि भारत में कैसी फिल्में बनती हैं या हैरान हो सकते हैं कि ऐसी फिल्में बनती हैं?

‘मुगले-आजम’ की पटकथा को ऐसे समय ऑस्कर की लाइब्रेरी में जगह मिली है, जब इसे लिखने वाले के.आसिफ, कमाल अमरोही, वजाहत मिर्जा और एहसान रिजवी काफी पहले दुनिया से रुखसत हो चुके हैं। इसके अकबर (पृथ्वीराज कपूर) और अनारकली (मधुबाला) भी दुनिया में नहीं हैं। सलीम (दिलीप कुमार) जरूर हैं, लेकिन 97 साल की उम्र में उनकी याददाश्त इतनी कमजोर हो चुकी है कि उन्हें न मधुबाला याद हैं, न फिल्म से जुड़े बाकी नाम। सोलह साल पहले ‘मुगले-आजम’ का रंगीन संस्करण सिनेमाघरों में पहुंचने पर दिलीप कुमार ने कहा था- ‘काश, यह फिल्म कभी खत्म न हो। यह चलती रहे, क्योंकि यह लुत्फ भी देती है, दिल भी बहलाती है। यह बड़ा सबक-आमेज अफसाना है।’ पता नहीं, इस फिल्म की पटकथा को ऑस्कर की लाइब्रेरी में जगह मिलने पर अदाकारी के बादशाह दिलीप कुमार की क्या प्रतिक्रिया रही होगी।

भला हो के. आसिफ के पुत्र अकबर आसिफ का, जो अमरीका में रहते हैं। उन्होंने ही पटकथा ऑस्कर की लाइब्रेरी को मुहैया कराई। फिल्म प्रेमियों को हैरानी हो सकती है कि सूचना क्रांति के जमाने में, जब बात निकलती है और चुटकीभर में जाने कहां से कहां पहुंच जाती है, ‘मुगले-आजम’ को ऑस्कर की लाइब्रेरी तक पहुंचने में 60 साल लग गए। हैरानी का सबब यह भी है कि ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’, ‘आवारा’, ‘गाइड’ और ‘शोले’ जैसी क्लासिक फिल्में अब तक इस लाइब्रेरी से दूर हैं। ऑस्कर वालों की चयन प्रक्रिया को लेकर फिर नजीर बनारसी याद आते हैं- ‘मेरी बेजुबां आंखों से गिरे हैं चंद कतरे/ वो समझ सकें तो आंसू, न समझ सकें तो पानी।’