राम मंदिर: क्या सिर्फ एक बहानेबाजी है?

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कहावत है कि मरता, क्या नहीं करता ? सरकार को पता है कि अब राम मंदिर ही उसके पास आखिरी दांव बचा है। यदि यह तुरुप का पत्ता भी गिर गया तो वह क्या करेगी ? नरेंद्र मोदी ने महिने भर पहले यह कह ही दिया था कि हम सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार करेंगे याने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए अध्यादेश नहीं लाएंगे।

जबकि अध्यादेश लाने की मांग विश्व—हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जोरों से कर रहे हैं। सारे साधु—संतों ने भी इस मामले में सरकार पर बंदूकें तान रखी हैं। शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंदजी ने तो 21 फरवरी को राम मंदिर के शिलान्यास की घोषणा भी कर दी है। उधर कांग्रेस दावा कर रही है कि उसने ही राम मंदिर के बंद दरवाजे खुलवाए थे ओर अब सत्ता में आने पर वह ही राम मंदिर बनाएगी।

ऐसे में घबराई हुई मोदी सरकार क्या करे। इधर वह साहिल से और उधर तूफान से टकरा रही है। इसी हड़बड़ाहट में उसने सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की है कि मंदिर-मस्जिद के आस-पास की जो 67 एकड़ जमीन नरसिंहराव सरकार ने एक अध्यादेश के द्वारा 1993 में अधिग्रहीत की थी, उसे वह मुक्त कर दे ताकि वहां राम मंदिर की शुरुआत की जा सके। वहां 42 एकड़ जमीन रामजन्मभूमि न्यास की है।

उसी पर शुभारंभ हो सकता है। लेकिन पहला प्रश्न यही है कि क्या वह रामजन्मभूमि है ? नहीं है। दूसरा प्रश्न यह कि सर्वोच्च न्यायालय अपने दो फैसलों में उस अधिग्रहीत जमीन को तब तक वैसे ही रखने की बात कह चुका है, जब तक कि पौने तीन एकड़ राम जन्मभूमि की मिल्कियत का फैसला न हो जाए। तीसरा प्रश्न यह कि प्र मं. अटलजी ने संसद में अदालत के इस फैसले को सही बताया था। उसे आप उलट रहे हैं।

चौथा, प्रश्न यह कि उस अधिग्रहीत जमीन के दर्जनों मालिक से अब मुआवजा कैसे वसूल करेंगे। पांचवां प्रश्न यह कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद कोर्ट के फैसले को सही ठहरा दिया तो मस्जिद तक पहुंचने के लिए मुसलमानों को रास्ता कैसे मिलेगा ? मुझे लगता है कि अदालत सरकार की इस प्रार्थना को रद्द कर देगी।

सरकार को सभी साधु-संतों और अपने हिंदू वोट-बैंक को यह कहने का बहाना मिल जाएगा कि हमने कौनसी कोशिश नहीं की लेकिन हम मजबूर हैं, अदालत के आगे। जाहिर है कि सरकार में बैठे लोग अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।

वरना उस 70 एकड़ जमीन में शानदार राम मंदिर के साथ-साथ सभी धर्मों के पूजा-स्थल बन सकते थे और इस एतिहासिक समाधान के साथ-साथ सभी धर्मों के पूजा-स्थल बन सकते थे और यह एतिहासिक समाधान अदालत और अध्यादेश से नहीं, बातचीत से निकल सकता था। लेकिन हमारे भाषणबाज नेता को बातचीत करनी आती ही नहीं। इस बहानेबाज़ी से नैया कैसे पार लगेगी ?

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक