लड़खड़ाने के बावजूद नेतन्याहू सत्ता की कुंजी हथियाने में सफल रहे

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नई दिल्ली : चुनाव में लड़खड़ाने के बावजूद इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू सत्ता की कुंजी हथियाने में सफल रहे। राष्ट्रपति रूवेन रिवलिन ने उन्हें सरकार बनाने का न्योता दिया है। हालांकि अगले 28 दिनों के भीतर उन्हें संसद में कम से कम 61 सदस्यों का समर्थन जुटाना होगा, जो अभी बेहद कठिन लग रहा है। 17 सितंबर को हुए चुनाव में उनके गठबंधन की झोली में 55 सीटें ही आ पाईं। ऊपर से भ्रष्टाचार के तीन मामलों का भी सामना वे कर रहे हैं। ऐसे में यह उत्सुकता रहेगी कि नेतन्याहू सरकार बनाने में सफल हो पाते हैं या नहीं। दरअसल राष्ट्रपति ने नेतन्याहू और उन्हें चुनौती देने वाले बेनी गेंट्ज के साथ बैठक करने के बाद सरकार बनाने का जिम्मा नेतन्याहू को ही सौंपा। राष्ट्रपति की कोशिश थी कि दोनों मिलकर सरकार बनाएं पर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली।

कांटे की टक्कर
इजरायल में पिछले पांच महीने में दोबारा हुए चुनाव में किसी भी दल को बहुमत न मिल पाना महत्वपूर्ण घटना है। नेतन्याहू की ‘लिकुड’ और बेनी गेंट्ज की ‘ब्लू एंड वाइट पार्टी’ के बीच कांटे की टक्कर एक तरफ जनता में सत्ता परिवर्तन की चाहत दिखाती है, दूसरी तरफ नेतन्याहू के प्रति ‘एंटी कम्बेंसी को भी जाहिर करती है। नतीजों के अनुसार दोनों प्रमुख दल 120 सदस्यीय संसद ‘नेसेट’ में सरकार बनाने के लिए जरूरी 61 सीटों से काफी दूर रहे। इस स्थिति में गठबंधन की सरकार बनाने की पहल ही इजरायल को लगातार तीसरी बार चुनाव में जाने से रोक सकती है। इसी वर्ष अप्रैल में संपन्न चुनाव में नेतन्याहू और बेनी गेंट्ज की पार्टी को 35-35 सीटें मिली थीं। इनके वोट प्रतिशत भी लगभग बराबर ही थे। बाकी 50 सीटें अन्य 9 छोटे दलों को मिली थीं। नए नतीजों में मौजूदा सत्तासीन दल के वोट प्रतिशत में डेढ़ से दो फीसदी की कमी दर्ज हुई है।

हाल के वर्षों में बेंजामिन नेतन्याहू पर भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण भी कई दलों ने उनसे दूरी बना ली है। यहां इजरायली अरबों की संख्या कुल वैध मतदाताओं का लगभग 20 प्रतिशत है जिन्होंने इस चुनाव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। अप्रैल में हुए चुनाव के दौरान इस आबादी के लगभग 50 फीसदी लोगों ने चुनाव बहिष्कार के कारण अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं किया था। पर इस बार अरबी और अन्य ‘सेंटर-लेफ्ट’ पार्टियों द्वारा उनकी समस्याओं के निदान को लेकर किए गए वादों के कारण अरब इजरायलियों ने उम्मीद से अधिक मतदान किया है। इसी कारणवश अरबी दल इस बार संसद में तीसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरा है। इस चुनाव परिणाम पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी रही हैं। नया परिणाम कई मिथकों को तोड़ने वाला है। उग्र राष्ट्रवाद, यहूदीवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा तथा अंध फिलस्तीन विरोध आदि मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे सत्तासीन दल को अन्य समुदायों का समर्थन नहीं मिल पाना नेतन्याहू की हार की बड़ी वजह मानी जा सकती है। यह चर्चा भी रही कि अमेरिका द्वारा ईरान को लेकर सख्ती बरतने में ट्रंप की असफलता से नेतन्याहू समर्थकों को निराशा हुई, जिसका असर स्थानीय सरकार की लोकप्रियता पर पड़ा।

पिछले कुछ वर्षों में न सिर्फ इजरायल के विपक्षी दल बल्कि दुनिया के ज्यादातर देश बेंजामिन नेतन्याहू के आक्रामक और एकतरफा फैसलों से चिंतित रहे हैं। खासकर अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के सत्तासीन होने के बाद नेतन्याहू प्रशासन ने एक के बाद एक सख्त और अनैतिक फैसले लिए। संयुक्त राष्ट्र समेत पूरे विश्व की असहमति के बावजूद ट्रंप द्वारा तेल अवीव की जगह यरूशलम को इजरायली राजधानी की मान्यता दिए जाने की घटना ने पूरे विश्व को चिंतित किया था। ऐसा ही फैसला अमेरिकी दूतावास के स्थानांतरण को लेकर किया गया था। यह फिलस्तीनी सरजमीं पर इजरायली अधिकार को थोपने वाला कदम था। इसके अलावा इजरायल-फिलस्तीन से जुड़े सभी विवादास्पद मुद्दों पर नेतन्याहू सरकार को ट्रंप का एकतरफा और पक्षपातपूर्ण सहयोग मिलता रहा।

अभी हाल ही में अमेरिका द्वारा विवादित गोलन की पहाड़ियों पर इजरायल की संप्रभुता स्थापित करने के निर्णय ने पूरे पश्चिम एशिया को अशांत किया है। गोलन पहाड़ियों पर इजरायली अधिकार को संयुक्त राष्ट्र् मान्यता नहीं देता। ट्रंप द्वारा यह फैसला भी नेतन्याहू को चुनावी मदद के लिए लिया गया था। पिछले साल जुलाई में इजरायली संसद द्वारा पारित ‘यहूदी राज्य बिल‘ भी काफी विवादों में रहा है। इस फैसले ने इजरायल को यहूदी राज्य का दर्जा प्रदान कर अन्य समुदायों को दोयम दर्जे की नागरिकता तक सीमित करने का काम किया था। इसी दौरान अरबी से देश की आधिकारिक भाषा का दर्जा भी छीन लिया गया। इस कदम ने लगभग 90 लाख की आवादी वाले इजरायल की 20 फीसदी अरबी जनसंख्या को बहुत निराश किया। इस विधेयक के पक्ष में 62 और विपक्ष में 55 सांसदों ने मत डाले थे। इस मत विभाजन से यह समझा जा सकता है कि इजरायली संसद में काफी जद्दोजहद के बाद इस विधेयक को पारित करवाया गया था। जाहिर है, यह कदम भी बहुसंख्यक यहूदियों के तुष्टिकरण के लिए ही उठाया गया था।

नई पहल जरूरी
फिलस्तीन-इजरायल विवाद सुलझाने के प्रयास में ईरान, तुर्की और अन्य मुल्कों द्वारा शांति बहाली की कोशिशें जरूर हुईं, लेकिन यासिर अराफात के जीवित और आंदोलनरत रहते समाधान की दिशा में जो मार्ग प्रशस्त होते थे, वे अब नहीं दिखते। इजरायल में जो भी सरकारें सत्तासीन हुईं, वे एक राष्ट्र की थ्योरी पर जोर देती रही हैं। इस बार सरकार नेतन्याहू की बने या फिर बेनी गेंट्ज की, दुनिया यही चाहती है कि दशकों से उलझे फिलस्तीन-इजरायल मसले का दो-राष्ट्र अजेंडे के तहत शांतिपूर्ण हल निकले। आशा है कि अब बदलते अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में संयुक्त राष्ट्र और यूरोपियन यूनियन जैसे संगठनों को तवज्जो दी जाएगी।

(लेखक: केसी त्यागी जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता व पूर्व सांसद हैं)