सीबीआई की गिरती साख

   

नई दिल्ली : सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा ने एक रिपोर्टर द्वारा पूछे गए सवाल का यों उत्तर दिया था, ‘हम सरकार के ही एक हिस्सा हैं। हम स्वायत्त संस्था नहीं हैं। मैंने रिपोर्ट किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं, बल्कि कानून मंत्री को दिखाई थी।’ यह कथन सीबीआई जैसी संस्था की बाध्यता को दर्शाता है। यह संस्था फंडिंग, नियुक्ति व इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर है। यही इसकी सबसे बड़ी विवशता है। परंतु राजनीतिक नेतृत्व जनता के प्रति जवाबदेह होता है। अगर वह किसी सरकारी संस्था के दिन-प्रतिदिन के काम में दखल डालने लगता है तो ऐसे ही हालात उत्पन्न होते हैं।

सीबीआई के भीतर और उसको लेकर आए दिन जैसे विवाद देखने को मिल रहे हैं, उससे देश की इस सर्वोच्च जांच एजेंसी की साख पाताल में चली गई है। यह सवाल भी पूछा जाने लगा है कि अगर सीबीआई का हाल ऐसा ही बना रहा तो आने वाले दिनों में गंभीर अपराधों की जांच कैसे हो पाएगी? ताजा मामला पश्चिम बंगाल सरकार के साथ इसके टकराव का है। रविवार शाम सीबीआई की एक टीम शारदा चिटफंड और रोज वैली घोटाले में पूछताछ करने कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के सरकारी निवास पर पहुंची। वहां सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस ने सीबीआई टीम को राजीव कुमार के घर में दाखिल नहीं होने दिया और उन्हें शेक्सपियर सरणी थाने ले आई।

कोलकाता पुलिस का दावा है कि सीबीआई की टीम बिना किसी वॉरंट या अदालती आदेश के आई थी। राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सीबीआई की इस कार्रवाई के विरोध में धरने पर बैठ गईं। वर्ष 2013 में शारदा चिट फंड और रोज वैली घोटाले की जांच का जिम्मा ममता सरकार ने विशेष जांच दल (एसआईटी) को सौंपा था, जिसके मुखिया राजीव कुमार थे। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ये मामले सीबीआई को सौंप दिए, जिसका आरोप है कि राजीव कुमार ने कई डॉक्यूमेंट, लैपटॉप, पेन ड्राइव और मोबाइल फोन उसे नहीं सौंपे। इस बारे में उन्हें कई बार समन भेजा गया, फिर भी वह सीबीआई के सामने पेश नहीं हुए।

ममता बनर्जी का कहना है कि उन्होंने बीजेपी को राज्य में रैली करने से रोका, इसलिए केंद्र सरकार के इशारे पर सीबीआई यह कार्रवाई कर रही है। उनकी आपत्ति यह भी है कि सीबीआई ने उनकी अनुमति के बगैर यह कदम उठाया। पिछले एक-दो महीनों में पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने अपने यहां सीबीआई की कार्रवाई पर रोक लगा दी है। इस संस्था का गठन दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम-1946 के तहत हुआ है, जिसकी धारा-5 के तहत सीबीआई को पूरे देश में जांच का अधिकार दिया गया है।

सीबीआई व सरकार की कार्यशैली को आंकें तो यह ज्ञात होता है कि इमरजेंसी से पहले किसी भी जांच-प्रक्रिया में ‘सरकारी हस्तक्षेप’ के मामले न के बराबर थे। कुछ मामलों में ऊपरी दबाव होते थे, पर वे ‘राजनीतिक शिष्टाचार’ के दायरे में या सिफारिशी होते थे। लेकिन इमरजेंसी के बाद सत्ता का विकृत रूप संस्थाओं को अपने अधीन करता गया। इसके मुख्यत: पांच कारण हैं। पहला, इमरजेंसी ने यह बताया कि कैसे लोकतांत्रिक ढांचे में भी जन-प्रतिनिधि निरंकुश हो सकते हैं। दूसरा, इमरजेंसी के बाद गठबंधनों का दौर चला, एक-दूसरे को राजनीतिक फायदा पहुंचाने के चक्कर में तुष्टीकरण की नीति अपना कर अधिकतर संस्थाओं के गलत इस्तेमाल किए गए। तीसरा, राजनीति सेवा की जगह व्यवसाय बन गई। क्रिमिनल, कॉरपोरेट सेक्टर, राजनेता और नौकरशाहों के बीच अवैध गठजोड़ विकसित हुआ। चौथा, न्याय-तंत्र कमजोर होता चला गया, जिससे भ्रष्टाचार व वित्तीय अनियमितताओं के मामले दबने लगे या इनके फैसलों पर असर पड़ने लगे। और पांचवां, सीबीआई अफसरों की नियुक्ति, पदोन्नति और ट्रांसफर पोस्टिंग में वरिष्ठता व योग्यता की जगह सत्ता से उनकी निष्ठा व ईमानदारी को तरजीह दी जाने लगी। इसलिए आज जो भी बड़े केस हैं, मसलन टू जी स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला आवंटन तक में सीबीआई की भूमिका पर सवाल उठते हैं।

लेकिन धारा-6 में साफ कहा गया है कि राज्य सरकार की अनुमति के बिना सीबीआई उसके अधिकार क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती। अभी की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ही बता सकता है कि इन तीनों राज्यों में सीबीआई कैसे काम करे। सीबीआई को अपने कार्यक्षेत्र में न घुसने देना का राज्य सरकारों का फैसला केंद्र द्वारा उसके राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप से जुड़ा है। इस झगड़े से सीबीआई की विश्वसनीयता को वैसा ही आघात लगा है, जैसा कुछ समय पहले इसके दो आला अफसरों के झगड़े से लगा था। जाहिर है, देश की आला जांच एजेंसी का कमजोर पड़ना, उस पर लोगों का भरोसा कम होना हमारे समूचे सिस्टम के लिए बहुत खतरनाक संकेत है। फिलहाल पहली जरूरत बंगाल में पैदा गतिरोध को दूर करने की है, लेकिन बाद में राजनीतिक दलों को साथ बैठकर सीबीआई की साख बहाली के तरीके भी खोजने होंगे।

जिन केसों पर उठे सवाल
बोफोर्स घोटाला
1987 में सामने आए इस घोटाले में सीबीआई पर लीपापोती का आरोप लगा। आरोप था कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिए 80 लाख डॉलर की दलाली चुकाई थी। उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे।

भोपाल गैस कांड
भोपाल में 1984 को यूनियन कार्बाइड नामक कंपनी के कारखाने से हानिकारक गैस के रिसाव में लगभग 15,000 से अधिक लोगों की जान गई, बहुत सारे लोग अंधेपन के शिकार हुए और अभी भी उसका दुष्प्रभाव झेल रहे हैं, लेकिन सीबीआई उसके मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को भारत तक लाने में सफल नहीं हो पाई है।

आय से अधिक संपत्ति का मामला
मुलायम सिंह पर कथित रूप से 100 करोड़ रुपये से भी अधिक संपत्ति का मामला 2005 में दर्ज हुआ। इस मामले को लेकर भी सीबीआई पर आरोप लगते रहे हैं कि वह सरकार के इशारे पर इस केस में काम कर रही है। इस मामले में सीबीआई ने मुलायम सिंह को क्लीन चिट दे दी थी, लेकिन कोर्ट के आदेश पर जुलाई 2008 में उसे वापस ले लिया गया।

टूजी स्पेक्ट्रम मामला
स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा वित्तीय मामला है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक, यह मामला एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपये का है। इस मामले में विपक्ष से भारी विवाद के बाद संचार मंत्री ए राजा को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। सुप्रीमकोर्ट ने भी इस मामले में प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाया। टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन को लेकर संचार मंत्री की नियुक्ति के लिए हुई लॉबिंग के संबंध में नीरा राडिया, पत्रकारों, नेताओं और उद्योगपतियों की बातचीत के बाद सरकार कठघरे में है। सीबीआई पर भी सरकार को बचाने के आरोप लगे।

चारा घोटाला
लगभग 20 साल पुराना यह घोटाला 360 करोड़ रुपये से भी ज्यादा का है। इस मामले में कई दलों के राजनेताओं के नाम आए। सीबीआई ने अदालत में चाजर्शीट दाखिल कर रखी है, लेकिन इस मामले में भी सीबीआई पर उंगलियां उठती रही हैं।

ताज कॉरीडोर
2003-2004 में ताज कॉरीडोर में हुए 175 करोड़ रुपये के घोटाले के आरोपियों में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का भी नाम है। सीबीआई पर आरोप है कि वह इस मामले का उपयोग सरकार के दिशा-निर्देश पर करती है।

लोकपाल लागू होने पर क्या पड़ेगा फर्क?
– सीबीआई में एक अलग अभियोजन सेल बनाया जाएगा, जो सीबीआई निदेशक के अधीन रहेगा।
– अभियोजन निदेशक की नियुक्ति केंद्रीय सतर्कता (सीवीसी) आयुक्त द्वारा की जाएगी।
– सीबीआई निदेशक की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा नेता प्रतिपक्ष और मुख्य न्यायाधीश मिल कर करेंगे।
– दोनों निदेशकों का कार्यकाल निश्चित होगा।