हैदराबाद ने 71 साल पहले NRC की कोशिश की थी, और असफल रहा

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हैदराबाद: केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी और तेलंगाना के अन्य भाजपा नेताओं ने अक्सर कहा है कि हैदराबाद में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की जरूरत है। हालांकि आपको यह जानकर हैरानी होगी कि हैदराबाद में 71 साल पहले भी इस तरह की (एनआरसी की) कवायद शुरू हुई थी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई थी। दरअसल, 71 साल पहले हैदराबाद का भारतीय संघ में विलय हुआ था। आजादी के तुंरत बाद ही वहां एनआरसी की कवायद हुई थी। पर, उस समय इस कवायद को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। एनआरसी की तर्ज पर हैदराबाद में ‘विदेशियों’ को शामिल करने का अभियान 17 सितंबर, 1948 को पुलिस की कार्रवाई के तुरंत बाद शुरू किया गया। शहर में रहने वाले हजारों लोग, जिनमें पीढ़ियों से रहने वाले लोग शामिल थे, को ‘बाहरी’ के रूप में पहचाना गया और हिरासत में रखे गए शिविरों में उनके निर्वासन को लंबित रखा गया। अंत में, केवल कुछ ही लोगों को सऊदी अरब सहित कई देशों में निर्वासित किया गया, उन्हें अपने देश के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया गया।

हालांकि तब NRC शब्द का उपयोग नहीं किया गया था। पर, जो प्रक्रिया अपनाई गई वह लगभग एनआरसी जैसी ही थी। इसके जरिए बंदियों को कांटेदार तार के पीछे और सशस्त्र गार्ड के तहत शिविरों में रखा गया था। महिलाओं और बच्चों को अलग-अलग बाड़ों में रखा गया था। चूंकि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत उन दिनों महिलाओं और बच्चों के पास राष्ट्रीयता के अलग अधिकार नहीं थे। ऐसे में हैदराबाद में पैदा होने के बावजूद अगर उनके पिता या पति बाहरी थे, तो उन्हें (महिलाओं और बच्चों को) बाहरी माना गया। शोधकर्ता डॉ. टेलर सी शेरमन ने यूके में राष्ट्रीय अभिलेखागार में हैदराबाद दस्तावेजों के माध्यम से इस पर शोध किया। उन्होंने हैदराबाद में 1948 और 1950 के बीच भारतीय सरकार के साथ सैन्य प्रशासक के बीच संवाद स्थापित किया। उनके रिसर्च से पता चला कि पुलिस कार्रवाई से कई दशक पहले हैदराबाद में बसने वाले अरब और अफगानों के अलावा, 6,225 लोगों को इस आरोप में हिरासत में रखा गया था कि वे पाकिस्तानी नागरिक थे। इनमें से अधिकांश बाद में ब्रिटिश भारत में पैदा हुए पाए गए।

21,000 लोगों की पहचान विदेशी के रूप में हुई
रिसर्चर शेरमन कहती हैं, लेकिन इन लोगों को वापस लाने का प्रयास राजनीतिक और कानूनी दोनों तरह से अटक गया। इस प्रक्रिया में, कई कानूनी रूप से निष्क्रिय छोड़ दिए गए थे। शेरमन ने शोध में दावा किया कि कैसे लगभग 21,000 लोगों को विदेशियों के रूप में पहचाना गया और हिरासत में रखा गया। शेरमन के अनुसार, सरकार ने मूल रूप से प्रस्ताव दिया था कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, सऊदी अरब की सरकारों के परामर्श के बिना बंदियों को उनके घर वापस भेज दिया जाए। पर, निरोध और प्रस्तावित निर्वासन ने इस संभावना को बढ़ा दिया कि इन लोगों को निर्वासित करने की किसी भी कार्रवाई का विदेशों में भारतीय समुदायों के लिए अप्रिय परिणाम होगा।

शेरमन कहती हैं, जिन लोगों को सरकार ने निर्वासित करना चाहा था, उनमें से कई के पास घर नहीं थे। ऐसे में बहुत कम संख्या में सिर्फ बाहरी अफगानों को निर्वासित किया गया था। लगभग दो दर्जन ने लोग जो कि सऊदी अरब से होने का दावा कर रहे थे, करीब तीन साल तक सऊदी सरकार के साथ बातचीत के बाद भी हल नहीं निकला और उन्हें नहीं भेजा जा सका। हैदराबाद में इन 23 व्यक्तियों की उपस्थिति से राज्य को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला नहीं था और बाद में उन्हें भी नजरबंदी से रिहा कर दिया गया।