बाबरी के नाम पर तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व ने मुसलमानों को दूसरे दर्जे का शहरी बना दिया

   

ज़फर आग़ा 

दिसंबर 6, भारतीय राजनीति का वह संगमील है, जिसने भारतीय राजनीति की काया पलट दी। इसी रोज 1992 को अयोध्या में मुगलशाही संस्थापक बाबर के दौर की एक छोटी सी मस्जिद गिरी और बस समझिए कि उस रोज़ भारतीय संविधान में सेंध लग गई। बाबरी मस्जिद अयोध्या की एक छोटी सी मस्जिद थी, परन्तु जिस प्रकार उस मस्जिद को एक हिन्दू मजमे ने गिराया उसमें आस्था कम और राजनीति बहुत अधिक थी। भले ही उस मजमे में आस्था का भाव रहा हो, परन्तु उस मजमे को इकट्ठा करने वाले संगठन विश्व हिन्दू परिषद और भारतीय जनता पार्टी के लक्ष्य पूर्णतया राजनैतिक थे। सत्य तो यह है कि दिसंबर 1992 को अपने बहुत सारे संगठनात्मक अंगों का प्रयोग कर हिन्दू राष्ट्र की नींव रखी गई थी और अब इसी दिसंबर के माह में भारतीय संसद में नागरिकता संशोधन बिल पेश कर संघ अपना हिन्दू राष्ट्र का सपना लगभग साकार करने की दहलीज पर पहुंच चुका है।

लेकिन, यह कायापलट हुई कैसे! सन 1947 के बंटवारे की सांप्रदायिक आग में झुलसते जिस भारत ने सफलतापूर्वक एक आधुनिक राष्ट्र का सपना देखा और उसको साकार किया। वही भारतवर्ष आज संघ का हिन्दू राष्ट्र के रूप में किस तरह खड़ा है। नि:संदेह भारतीय जनता पार्टी के कन्धों पर सवार होकर संघ ने 1925 में जो सपना देखा था वो लगभग साकार कर लिया। परन्तु इस सपने को साकार करवाने में भारतीय सेकुलर राजनैतिक पार्टियों और तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व का भी योगदान था।

वह कैसे!

सन् 1989 में उत्तर प्रदेश की नारायण दत्त तिवारी सरकार ने बाबरी मस्जिद अहाते में राम मंदिर शिलान्यास की आज्ञा देकर संघ के हौसले बुलंद कर दिए। फिर सन् 1989 के लोकसभा चुनाव में वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल ने राजीव गांधी को हराने के लिए बीजेपी का सहयोग लेकर पहले चुनाव लड़ा और फिर बीजेपी के सहयोग से सरकार बनाई। इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय राजनीति में अछूत का स्वरुप रखने वाली बीजेपी रातों रात देश की राजनीति की मुख्यधारा में समन्वित हो गई और उसको पहली बार लोकसभा में 82 सीटें प्राप्त हो गईं। यहां से फिर बीजेपी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

परन्तु, बीजेपी को बीजेपी बनाने में सबसे बड़ा योगदान तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व का रहा। बीजेपी राजनीति का दारोमदार घृणात्मक राजनीति पर है। इस प्रकार की राजनीति की सफलता के लिए सामने एक शत्रु का होना आवश्यक है। जर्मनी में हिटलर का फासीवाद तब ही सफल हुआ जब वह यहूदियों को जर्मन शत्रु का स्वरूप देकर यहूदी समुदाय के प्रति घृणा एवं शत्रुता उत्पन्न कर सका। हिंदुत्व राजनीति भी उस समय तक सफल नहीं हो सकती थी जब तक कि हिन्दुओं के सामने एक स्पष्ट शत्रु न हो और उसके प्रति मन में घृणात्मक भावना न उत्पन्न हो। बाबरी मस्जिद एवं राम मंदिर प्रकरण ने संघ एवं बीजेपी का यह उद्देश्य सफल कर दिया।

इस परिपेक्ष में जरा बाबरी मस्जिद प्रकरण देखिए। बाबरी मस्जिद का ताला खुलता है, मुस्लिम पक्ष से तुरंत बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन होता है। यह कमेटी बाबरी मस्जिद की सुरक्षा के हर प्रयास की घोषणा केर देती है। घोषणा ही नहीं उत्तर भारत, विशेषतः उत्तर प्रदेश में नगर-नगर बड़ी-बड़ी रैलियां शुरू हो जाती हैं। यह मुस्लिम संप्रदाय की धार्मिक नेतृत्व वाली ‘अल्लाह हु अकबर’ नारों के साथ होने वाली रैलियां हैं। अभी विश्व हिन्दू परिषद् केवल यह मांग कर रहा है कि राम के जन्मस्थान से मुसलमान मस्जिद हटा लें, क्योंकि यह हिन्दू आस्था का एक अहम स्थान है। परन्तु मुस्लिम पक्ष इसके बिलकुल विरोध में है और अपनी बात पर अड़ा है।

स्पष्ट है कि इस प्रकार दो आस्थाओं के बीच टकराव उत्पन्न हो गया। अब संघ ने विश्व हिन्दू परिषद को आगे कर ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के नारे’ के साथ हिन्दू आस्था का झंडा खड़ा कर दिया है। उधर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी अपनी बात पर अडिग है। इस प्रकार बीजेपी और संघ को मुस्लिम पक्ष के हिन्दू शत्रु जो राम विरोधी हैं, की छवि देने में एक सफलता मिल गई है। पूरे संघ परिवार ने राम मंदिर-बाबरी मस्जिद को हिन्दू-मुस्लिम आस्थाओं की तकरार बना दिया। बस यहीं से मुस्लिम घृणा के कन्धों पर सवार बीजेपी इस देश की हिन्दू हित की राजनैतिक पार्टी बन गई। बाकी तो सब इतिहास है जिससे आप अभी वाकिफ हैं।

मुस्लिम नेतृत्व ने जिस प्रकार बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेतृत्व में हिन्दू टकराव का रास्ता अपनाया, उससे संघ एवं बीजेपी को मुस्लिम शत्रु मिल गया, जिसकी घृणा की राजनीति उत्पन्न कर आज मोदी इस देश को हिन्दू राष्ट्र के छोर तक ले आए हैं। परन्तु इस पूरे प्रकरण में सबसे अधिक नुकसान मुसलमानों का हुआ, जो अब लगभग दूसरे दर्जे के शहरी हैं। उसी के साथ-साथ देश में लिब्रल राजनीति को जो चोट पहुंची, उसने देश को अजीब स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। इस गंभीर राजनैतिक चोट के लिए तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व को माफ नहीं किया जा सकता।

इतिहास में जो बीत जाता है उसे बदला नहीं जा सकता। परन्तु इतिहास से सबक जरूर सीखा जा सकता है। इस 6 दिसंबर को बाबरी विध्वंस से उड़ने वाली राजनैतिक धूल हमको यह सीख देती है कि सांप्रदायिक राजनीति किसी भी समाज की हो, वह देश और समाज के प्रति अत्यंत हानिकारक है। अतः लिब्रल राजनैतिक पार्टियों को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों की सांप्रदायिकता से बराबरी से दूर रहने की आवश्यकता है। क्योंकि ये दोनों ही सांप्रदायिकताएं अंततः लिब्रल राजनीति के लिए घातक सिद्ध होती हैं।