आरसीपी सिंह को लेकर बीजेपी और जदयू की राजनीति!

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लेखक — गौरव कुमार    

राज्यसभा चुनाव में बिहार में केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह और नीतीश कुमार के टकराहट ने बीजेपी और जदयू में जहाँ घमासान और तेज कर दिया है,वहीं नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह के टिकट काटकर भूमिहार समुदाय को भी एक बड़ा मैसेज दे दिया है।

आरसीपी सिंह अभी केंंद्रीय मंत्री हुए, उनके मंत्रिपद के लिए उनका सांसद अनिवार्य है,लेकिन नीतीश कुमार ने उन्हें टिकट न देकर जहाँ बीजेपी को धर्मसंकट में डाल दिया है,वहीं इस घटनाक्रम से जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह अब पार्टी में नंबर दो के हैसियत में आ गए हैं।     

आरसीपी सिंह ने केंद्र में मंत्री बनने का फैसला खुद से लिया था और मंत्री बनने के बाद मीडिया से बातचीत में कहा था कि वो नीतीश कुमार के सहमति से ही मंत्री बने हैं। 2020 के बिहार चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार के लिए बीजेपी नेतृत्व से डील करना कठिन हो गया था।

नीतीश कुमार ने यह सोचकर आरसीपी सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया कि वे कुछ मुद्दों पर वे चुप रहेंगे और आरसीपी सिंह बीजेपी से डील करेंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने सहयोगी दलों को केंद्रीय मंत्रिमंडल में केवल एक सीट देने का निर्णय किया,परंतु जदयू ने इसका विरोध किया और आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अंतर्गत दो सीटों की माँग की।जब बीजेपी इसके लिए तैयार नहीं हुई,तो जदयू सरकार में शामिल नहीं हुई।

जुलाई  2021 में जब केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार हो रहा था,तब नीतीश ने इस मामले पर बातचीत के लिए बीजेपी नेतृत्व के पास  आरसीपी सिंह को भेजा।नीतीश आरसीपी सिंह और ललन सिंह दोनों को केंद्रीय मंत्री बनाना चाहते थे।परंतु आरसीपी सिंह ने अपना ही नाम बीजेपी नेतृत्व को भेज दिया।इस तरह वे बिना नीतीश के अनुमति के जदयू कोटे से मंत्री बन गए।यहीं से आरसीपी सिंह और बीजेपी के संबंध खराब हो गए।

अब आरसीपी सिंह को टिकट नहीं मिलने से उनका मंत्री पद खतरे में है।मंत्री बने रहने के लिए उनका हर हाल में सांसद बने रहना आवश्यक है।     आरसीपी सिंह चाह भी रहे हैं कि वे जदयू से इस्तीफा देकर बीजेपी ज्वाइन कर लें।लेकिन बीजेपी ने उन्हें राष्ट्रपति चुनाव तक चुप्पी साधने के लिए कहा है।

बीजेपी नहीं चाहती है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव से पहले नीतीश कुमार को और नाराज किया जाएँ।नीतीश कुमार पिछले दो बार  ट्रेक रिकॉर्ड रहा कि वे जिस गठबंधन में शामिल रहते हैं,उसके विरोधी राष्ट्रपति उम्मीदवार को वोट देते हैं।

उदाहरण के लिए 2017 में नीतीश कुमार आरजेडी के साथ महागठबंधन में शामिल थे,लेकिन वोट बीजेपी उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को दिया था।इसी प्रकार 2012 में वे एनडीए गठबंधन में शामिल थे,लेकिन वोट कांग्रेस उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी को दिया था।

ऐसे में बीजेपी अभी राष्ट्रपति चुनाव के लिए नीतीश को साधने में लगी हुई है।वहीं नीतीश कुमार भी अब 2020 के बिहार चुनाव के झटके से काफी हद तक उभर गए हैं।अब तो ऐसा लगता है कि नीतीश बीजेपी नेतृत्व के साथ शह और मात का खेल शुरू कर चुके हैं,ऐसे में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के बाद पुनः बिहार की राजनीति गर्म ही रहेगी।   

आरसीपी सिंह जो नीतीश निकटतम थे,उन्हें नीतीश ने अब हाशिए पर डाल दिया है।नीतीश ने अपने किसी निकटतम को हाशिए पर डाला है,ऐसा पहली बार नहीं हुआ है।कभी जॉर्ज फर्नांडीस उस पार्टी के संस्थापक थे,जिसके मुखिया अभी नीतीश हैं।

नीतीश कुमार को सक्रिय राजनीति में लाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है।लेकिन जब दोनों में तल्खी बढ़ी,तो 2007 में नीतीश कुमार ने फर्नांडीस को पार्टी अध्यक्ष पद से हटा दिया।   

इसी तरह शरद यादव भी नीतीश के निकटस्थ थे।2015 में जदयू ने  आरजेडी महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ी और जीत हासिल की।परंतु जब बाद में नीतीश ने आरजेडी को छोड़कर बीजेपी के साथ सरकार बना ली तो इसका शरद यादव ने सार्वजनिक तौर पर विरोध किया। फलतः 2017 में नीतीश ने शरद यादव को पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में पार्टी से निष्कासित कर दिया।

इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश ने 2007 में पार्टी से निकाला दिया,लेकिन 2009 में वे पुनः पार्टी में वापस आ गए।

2013 में उपेंद्र कुशवाहा ने जदयू से अलग हटकर अपनी पार्टी बना ली,हालांकि अभी वे पुनः नीतीश कुमार के साथ हैं।   

स्पष्ट है कि नीतीश कुमार पार्टी में अपना वर्चस्व बनाएँ रखने के लिए अपने निकटतम लोगों को भी किनारे लगाते रहे हैं।

इस कड़ी में अब आरसीपी सिंह भी शामिल हैं।लेकिन इस मामले को बीजेपी और जदयू के संघर्ष के नए अध्याय राष्ट्रपति चुनाव के बाद दिखने की संभावना है।

(यह लेखक के अपने विचार हैं)