इस दौर की ज़रूरत वसंत-रजब

   

आफरीन ऐजाज़

1 जुलाई को हम सांप्रदायिक सौहार्द्र दिवस या शहीदी दिवस के नाम से जानते है बहुत से लोग शायद इस दिन से वाकिफ़ न हो मगर यह दिन हमारे देश में एकता की निशानी के रूप में जाना जाता है।

आज जब देश का माहौल कुछ इस तरह का हो चूका है जहाँ नफरत इतनी बढ़ गयी है मेरा यह कहना भी गलत नहीं होगा के बढ़ाई गयी है जहां लोग आपस में धर्म और जात के नाम पर हिंसा कर रहें है एक भीड़ आती है और किसी की भी जान ले लेती है जान लेने की शर्त बस इतनी सी है की वह आप से धर्म या जात में अलग होना चाहिए।


यह सोचे बिना के भीड़ मे मारे जाने वालों का भी घर होगा एक परिवार होगा जो उस के इंतजार में राह तकते होंगे। तो ऐसे में लाज़िम हो जाता है की हम इस दौर में वसंत राव और रजब अली को याद करें उनके भाईचारे को याद करें उनकी क़ुरबानी को याद करें उनके एकता के विश्वास को याद करें।

वसंत राव जब 15 साल के थे तब उन्होंने असहयोग आंदोनल में हिस्सा ले लिया और देश में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ होने वाले सभी आंदोलनों में हिस्सा लेते रहे वसंत राव और रजब अली की दोस्ती राष्ट्र सेवा दल में हुई उनकी उम्र वसंत राव से 20 साल कम थी लेकिन यह उम्र का फासला भी उनकी दोस्ती में कभी बाधा न बना।

रजब अली ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं की थी यह सोच कर कि यह डिग्री ब्रिटिश सरकार की गुलामी में निकल जाएगी वह 27 साल की उम्र में कई बार जेल भी गए।


बात 1 जुलाई 1946 की है जब गुजरात के शहर अहमदाबाद में वार्षिक रथ यात्रा निकली थी। वैसे मैं आपको यह बताती चलूं की जब भी रथ यात्रा निकलती थी उस जगह का माहौल संप्रदायिक हो जाता था और यह सिलसिला आज तक जारी है।

वसंत राव और रजब अली राष्ट्र सेवा दल के लोगो के साथ मिल कर अपने-अपने समुदाओ की भीड़ से लोगो को बचाने का काम करते रहे थे वसंत राव हिन्दुओ की भीड़ से मुसलमानो को बचा रहें थे तो रजब अली मुसलमानो की भीड़ से हिन्दुओ को बचा रहें थे।

अचानक खबर आई के एक दलित बस्ती को सांप्रदायिक लोगो ने घेर लिया है वह दोनों दौड़ते भागते उस बस्ती में पहुंचते हैं और लोगो से कहते हैं कि उनके ज़िंदा रहते इस दलित बस्ती के लोगो को कुछ नहीं होने देंगे बिना डरे बिना अपनी जान की परवाह किये लोगो के सामने खड़े हो जाते है।

इस के बाद भीड़ उन्हें जान से मारने की भी धमकी देती है लेकिन वह ज़रा भी नहीं डरते और डट के उनके सामने खड़े हो जाते है कुछ लोग तो उनका यह साहस देख कर वापस मूढ़ जाते है लेकिन भीड़ में से कुछ लोग आगे बढ़ते है और उनकी हत्या कर देते है।


आज हमारा इन्हे याद करना इसलिए भी ज़रूरी है कि पहले भी देश में हिंसा होती रही हैं लेकिन उस वक़्त भी कुछ ऐसे लोग थे जो देश में एकता को मेहफ़ूज़ रखने के लिए अपनी जान दे देते थे तो हमारा यह फ़र्ज़ बनता है कि हम इस अतीत को याद रखे और अपनी आने वाली पीढ़ी तक इस तरह की कुर्बानियों की बात पुहचाएं ताकि वह धर्म को ज़िंदा रखने के लिए इंसानियत को ना मार सके।

(आफरीन ऐजाज़, पत्रकार)