लेखिका: नाइश हसन
बात एक बार फिर बुर्के और हिजाब की निकल पड़ी है। कर्नाटक में स्कूल जाने वाली लड़कियों को क्लास में जाने से रोका जा रहा है।
बुर्का पहन कर क्लास में आने या न आने की कोई गाइडलाइन पहले से नही थी, परंतु, ऐसा किया गया। इसलिए यह बात काबिले एहतेजाज भी बनी। तारीख गवाह है कि कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, गुजरात वगैरह कुछ ऐसे सूबे हैं देश में जहां बुके का चलन ज्यादा रहा है।
यहां कोई भी देख सकता है कि लड़कियां बड़ी तादाद में बुर्का पहने स्कूल कॉलेज व नौकरियों में जाते नजर आ जाती है, लोकल बसें, ऐसी लड़कियों से भरी रहती हैं, वो बुर्का पहनती हैं लेकिन न तो उनकी आजादी में कोई फर्क पड़ता है और न ही उनकी शिक्षा में। उन्हें वहां के ऊॅंचे ओहदों पर नौकरी करते भी देखा जा सकता है। हां , ऐसा माहौल उत्तर भारत का नही है ये बात दीगर है। ऐसे में अचानक स्कूलों का ऐसा फरमान आना किसी साजिश का मंसूबा सा मालूम पड़ता है।
स्कूलों में हिजाब पर सियासत गुजरे दो महीनों में तेज हुई, उसके बाद राज्य सरकार ने भी, ऐसे कपड़ों को पहनने पर पाबंदी लगाने का फरमान दे ड़ाला। ऐसा फरमान भारत में समानता, अखंडता, और नागरिक अधिकारों को चोट पहुॅंचाता है। आदेश में कहा गया कि छात्रों को कॉलेज, विकास समिति, या प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों के प्रशासनिक बोर्ड की ओर से चुनी हुई पोशाक ही पहननी होगी। सरकार की इतनी बात काबिले ऐहतराम मानी जा सकती है, लेकिन गौर करने वाली बात ये भी है कि ऐसा नया क्या था जिसके लिए राज्य सरकार को आदेश देना पड़ा ? ऐसा तो हमेशा से ही होता आया है और चुनी गई पोशाक ही स्कूली बच्चे पहनते आते हैं। उसी के साथ हमेशा ही कुछ लड़कियां बुर्का या हिजाब भी पहनती रही हैं, उसी तरह सिख लड़के यूनिफार्म के साथ पगड़ी भी लपेटते हैं। इस बात को कभी नोटिस में नहीं लिया गया, सहजता से ये सब चलता रहा, न बच्चों को कभी ऐतराज रहा कि उसकी सहेली क्यों बुर्का पहनती है और ऐसा ही पगड़ी के मामले में भी रहा। शिक्षा हासिल करना बुर्का या पगड़ी से कही बड़ा है।
जहां तक धार्मिक प्रतीकों का प्रश्न है उस बहस में जाने पर तो ऐसा दिखता है कि हिंदू धर्म से जुड़ी प्रार्थना ही अधिकतर स्कूलों में होती रही है, मां सरस्वती की तस्वीर लगभग सभी स्कूलों में मिल जाएंगी, जहां फूल चढाए जाते हैं, हमने भी अपने बचपन में हाथ जोड़ कर ऐसी ही प्रार्थना सभा रोज़ की है लेकिन ये सब कभी ऐतराज की बातें नहीं रही। उस वक्त कभी ये सवाल नहीं उठा कि हमारी धार्मिक भावना को ठेस लग रही है। जिसे आज कर्नाटक बीजेपी प्रमुख अनिल कुमार कटील शिक्षा का तालिबानीकरण कह रहे हैं, तो क्या इसके उलट व्यवस्था को जिसे बनाने की कोशिश जारी है उसे शिक्षा का हिंदूकरण नहीं कहा जाएगा?
आपने हाथों में कलावा बांधे, सिंदूर लगाए, गले में धार्मिक चिन्हों का लॉकेट पहने अनेको विद्यार्थियों व शिक्षकों को देखा होगा, तो क्या इसे शिक्षा का हिंदूकरण कहा जाए? और ऐसा नही तो फिर बुर्के को तालिबानीकरण कैसे कहा जा सकता है।
ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं आज देश के लगभग सभी सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, अस्पतालों, अदालतों, में मंदिर या हिंदू भावनाओं की तस्वीरे मिल जाएंगी, जयपुर कोर्ट में तो मनु की तस्वीर भी लगी है।
क्या कभी ऐसा ऐहतेजाज देखा गया कि इसे हटाया जाए हालाकि ऐसे सभी स्थलों पर हिंदू धार्मिक प्रतीक नहीं होने चाहिए फिर भी है। संविधान तो सभी को अपने धर्म का पालन और उनके प्रतीकों के इस्तेमाल की इजाजत देता ही है। वह देश जहां सर्वधर्म सम्भाव उसके मूल में हो, वहां ऐसा हिंसात्मक रवैया अपनाना देना को गर्त में ले जाने जैसा है।
आने वाले सालों में इसके ज्यादा भयावह नतीजे निकलने का खतरा है, क्योंकि इस सियासत में बच्चों को भी शामिल किया जा रहा है।
बुर्के की और बात करें तो वह धर्म का नहीं पितृसत्ता का हिस्सा है। पितृसत्ता से जुड़े तमाम चलन औरतें अपनी मर्जी से अपनाती है और अपनी समझदारी से छोड़ती हैं। उसे अपनाने या छोड़ने के लिए उन पर दबाव नहीं बनाया जा सकता। यह उनके राइट टू च्वाइस का मसला है, और वह उसे अपनी इच्छा से न पहने, तो यह उनकी मर्जी होगी जिसके लिए मर्दाना समाज उन्हें बाध्य भी नही कर सकता लेकिन अगर वह पहनना चाहती हैं तो उन्हें रोका क्यों जाए। बुर्के के इतिहास को देखें तो सातवीं शताब्दी में अरबिक शब्दावली में बुर्का शब्द नजर आता है परन्तु कुरान में इसका उल्लेख नहीं मिलता। यह पर्शियन शब्द है, जिसका अर्थ होता है कपड़े का टुकड़ा जिसका प्रयोग उस वक्त सर्दियों में संरक्षण के लिए होता था। ऐसा हमें प्रसिद्ध अरबी शब्दकोश लिसान-अल-अरब से पता चलता है। चिंता की बात यह है कि इस तरह की बेजा बहसें खड़ी करना बेशक संघ की महिला विरोधी शिक्षा का ही असर है। ऐसी शिक्षा न सिर्फ मुस्लिम बल्कि हिंदू महिला के संदर्भ में भी दी जाती है। हालिया शबरी माला मंदिर में माहवारी के दौरान प्रवेश न करने देने के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जिसमें बात यहां तक की गई थी कि महिलाओं की माहवारी चेक करने के लिए मंदिर के बाहर एक मशीन लगाई जाए। हमारे सामने ये नजीर भी मौजूद है कि सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा जीतने के बाद भी आज तक महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं मिल सकी। साथ ही देश के गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने बहुत ललकारते हुए संस्कृति की रक्षा के नाम पर प्रवेश को बहाल न करने का हर संभव प्रयास किया। जिसमें बीजेपी के केंद्रीय नेताओं ने अहम रोल निभाया। अब मुस्लिम महिला की बारी है। यदि अदालत ये फैसला दे भी दे कि बुर्का पहनने से रोका नही जा सकता, जिसकी पूरी उम्मीद भी है, लेकिन देश की इंतेहापसंद ताकतों को अपनी मर्जी से चलाना है तो मुमकिन है कि अदालती फरमान की भी कद्र न हो और शबरीमाला वाला ही हश्र हो। इस सबके पीछे छिपा सवाल सरकार की मंशा का है, जिसमें महिला की बराबरी और तरक्की नजर नहीं आती। इंसान के अंदर कुछ ऐसा है जो हदबंदियॉं पसंद नही करता। इस बदलते दौर में महिलाए इस देश में बराबरी के अधिकार पर न सिर्फ बात कर रही है दावे पेश कर उन्हें पाने का हर मुमकिन प्रयास भी कर रही हैं।
एनआरसी विरोधी आंदोलन इसकी ताजा मिसाल है। जिस हिकारत की नजर से इन बुर्कापोश महिलाओं को देखा गया, जिनके बारे में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यहां तक कह डाला कि इन महिलाओं को उनके पतियों ने सड़क पर बैठा दिया खुद बिस्तर में आराम कर रहे है, उन्हें सबक सिखाने की धमकी तक दे डाली, ये वही बुर्कापोश महिलाएं थीं जिन्होंने एक नई इबारत लिख ड़ाली।
दिल्ली से लेकर लखनऊ तक इसके असर को दुनियां ने अपने कैमरों में कैद किया, इन बुर्के वालियों के हुजूम से हुकूमत को ड़रते देखा, शाहीनबाग की अम्मा जी दुनिया की 10 असरदार औरतों में शुमार की गई और लखनऊ के घंटाघर की ओर बढा चला जा रहा इन काली-काली चीटियों का हुजूम रोके से न रोका गया।
ये बुर्के वालियां संविधान बचाने की लड़ाई में सरेफेहरिस्त थी, और सर्द रातें सड़कों पर गुजार रही थीं, ये वही बुर्के वालियां हैं जिनमें उज़्मा परवीन, हुस्न आरा, इरम रिजवी, रानी सिद्दीकी, उरूसा राना जैसी नौजवान लडकियां शामिल थीं जो हाथों में तिरंगा लिए कह रही थीं हीरे जवाहरात न दौलत की बात कर, बुलबुले चमन मेरे भारत की बात कर।
औरतों का ये काफिला अब बहुत आगे बढ़ चला है, उन्हे बात-बात पर रेाक और टोक पाना अब इस देश की इंतेहापसंद ताकतों के लिए मुमकिन न हो पाएगा, इसकी आहट तो अब मिलने ही लगी है।
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