भारतीय लोकतंत्र की नाकामी हैं दिल्ली के दंगे- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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दिल्ली में दो संप्रदायों के बीच इस तरह का दंगा हो सकता है, इसकी कल्पना ही हमारे लोकतंत्र को कलंकित करने के लिए काफी है।

 

1947 में विभाजन के बाद 1984 में जरुर सिखों के विरुद्ध भयंकर रक्तपात की ज्वाला भड़की थी लेकिन वह एकतरफा थी और इसके पीछे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या थी।

 

लेकिन पिछले चार-पांच दिनों में जो दंगे भड़के हैं, इनके पीछे कारण क्या है ? दिल्ली का यह उत्तर-पूर्वी क्षेत्र अपनी शांतिप्रियता और मेल-जोल के लिए जाना जाता है।

 

पिछले 36 साल में किंही भी दो संप्रदायों के बीच ऐसा नहीं हुआ कि लोग पिस्तौलें, तलवारें और लाठियां लेकर एक-दूसरे पर टूट पड़े हों।

 

अब तक तीन दर्जन से ज्यादा लोग मौत के घाट उतर चुके हैं और लगभग 300 लोग अस्पतालों में घायल पड़े हुए हैं।

 

जहां तक राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनसीआर) और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का सवाल है, उनका विरोध दिल्ली में ही नहीं, देश के कई शहरों में हो रहा है लेकिन कहीं से भी हिंसा और तोड़फोड़ की खबरें नहीं आ रही हैं।

 

जितने शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से ये धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें से गांधीजी के सत्याग्रह की खुशबू आ रही है। देश के प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह सही हो या गलत, इस तरह के विरोध-प्रदर्शन का पूरा अधिकार है।

 

लेकिन समझ में नहीं आता कि इन दोनों प्रावधानों के समर्थन में सभाएं और प्रदर्शन करने की जरुरत क्या थी ? संसद ने बहुमत से इस संशोधन को पारित किया है। सरकार अब तक उसी पर डटी हुई है।

 

उसके समर्थन में कुछ नेताओं को अत्यंत उत्तेजक भाषण देने की जरुरत क्या थी ? यदि उसका कोई समर्थन करना चाहे तो जरुर करे लेकिन उसका विरोध करनेवालों को गद्दार कहना, उनको गोली मारने का नारा लगवाना, उनको हत्यारा और बलात्कारी घोषित करवाना आखिर क्या है ?

 

क्या ये जो दंगे हुए हैं, वे इन्हीं कारनामों का अंजाम तो नहीं हैं ? जो आंदोलन हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल बन रहा था, उसे अब सांप्रदायिक रुप देने की जिम्मेदारी किसकी है ? इस पर वे नेता गंभीरता से विचार करें, जिनके शिष्यों ने अपनी उग्रता में अपना आपा खो दिया था। वे शायद भूल गए कि उनके जहरीले विचार धीरे-धीरे कुत्सित कारनामों का रुप लेते जा रहे हैं।

 

आश्चर्य तो इस बात का है कि गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस को इस अनहोनी होनी का ज़रा-सा भी अंदाजा नहीं हुआ।

 

जमना-पार के इलाके की पुलिस खड़ी-खड़ी देखती रही और हथियारबंद गुंडे निहत्थे नौजवानों की पीट-पीटकर हत्या करते रहे।

 

घरों, दुकानों और वाहनों को फूंका जाता रहा और पुलिस हाथ बांधे खड़ी रही। यह किसी आदिवासी गांव की नहीं, दिल्ली की पुलिस है। सबसे अच्छे प्रशिक्षण, हथियार और सुविधाओं से लैस दिल्ली की पुलिस की यह अकर्मण्यता आश्चर्यजनक है।