बाबरी मस्जिद- राम जन्मभूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट की पहल, बातचीत से सुलझाने की कोशिश!

   

अयोध्या में रामजन्मभूमि का मामला आधी सदी से अदालतों में चल रहा है और आज भी कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता कि जमीन की मिलकियत का दीवानी मुकदमा कब जाकर पूरा होगा। इस समय मामला देश की उच्चतम अदालत में है। इस बात पर बहस चल रही है कि जल्द से जल्द इस पर सुनवाई हो।

आम तौर पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कानून होता है जिसे मानना सबके लिए बाध्यता होती है। परन्तु जन्मभूमि का मामला जमीन की मिलकियत से कहीं बढ़कर देश की बहुसंख्यक आबादी की आस्था का मुद्दा बन चुका है।

यह भी सभी मानते हैं कि आस्था का मुद्दा किसी अदालती बहस से नहीं सुलझ सकता। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी पहल करते हुए सुझाया है कि दो धार्मिक समुदायों के बीच कटुता का कारण बना हुआ यह मामला बातचीत के जरिये सुलझाने की कोशिश की जाए।

प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यों वाली खंडपीठ ने यह सुझाव दिया है और सभी पक्षों को इस पर सोचने का समय देते हुए कहा है कि वह इस बारे में अपना आदेश 5 मार्च को सुनाएगा। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो फिर अदालत प्रस्तुत दीवानी मुकदमे में सुनवाई की प्रक्रिया शुरू करेगी और अदालत के समक्ष प्रस्तुत साक्षियों तथा मौजूदा कानूनों के प्रावधानों के आधार पर उसे निबटाने के लिए आगे बढ़ेगी।

उच्चतम न्यायालय की इस बेंच के एक न्यायाधीश शरद अरविन्द बोबडे ने सुनवाई के दौरान यहां तक कहा कि यदि इस मामले को बातचीत से सुलझाने की एक प्रतिशत भी संभावना हो तो उसे खोजा जाना चाहिए। उनका कहना था कि यह केस निजी संपत्ति के मालिकाना हक का नहीं है। यह दो समुदायों के बीच रिश्तों का है। इन रिश्तों के घावों को भरने की संभावना खोजी जानी चाहिए।

इलाहाबाद ने भी सितंबर 2010 में समझौतावादी रुख को अपनाते हुए दो-एक के बहुमत से कानूनी प्रक्रिया से आगे बढ़ कर निर्णय दिया था कि विवादास्पद भूमि तीन भागों में बांट दी जाए।

एक तिहाई भाग रामलला विराजमान के लिए अखिल भारतीय हिन्दू महासभा को, एक तिहाई भाग सुन्नी वक्फ बोर्ड को और शेष भूमि निर्मोही अखाड़े को दे दी जाए। परन्तु इससे कोई राजी नहीं हुआ।

अयोध्या में रामजन्मभूमि के मामले को अदालतों से बाहर बातचीत से हल करने की कोशिशें तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और बाद में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के समय हुईं और लगा था कि समझौता होने को है मगर कुछ सकारात्मक परिणाम नहीं निकल सका।

उच्चतम न्यायालय पर सबको भरोसा है इसीलिए सभी पक्ष उसी से निर्णय चाहते हैं। यदि उसकी निगरानी में गोपनीयता बरतते हुए सभी पक्षों में शांत माहौल में बातचीत होती है तो शायद बात बन जाए क्योंकि उसमें किसी की जीत या हार नहीं होगी। क्योंकि आस्था के मुद्दों पर अदालतों के कानूनी निर्णय लागू करवाना अक्सर असंभव होता है।

इसीलिए शीर्ष अदालत ने एक नया रास्ता सुझाया है, जिस पर सभी पक्षों को धैर्य से विचार करना चाहिए। आस्था जब उन्माद बन जाती है, तब विवेक साथ नहीं देता। आज जरूरत है, ऐसे विवेक की, जिसके जरिये अयोध्या मुद्दे का हल यदि बातचीत से निकलने की अंशमात्र भी गुंजाइश हो, तो उसे एक मौका दिया जाना चाहिए।