ऐसा लगता है कि भारत का मीडिया मुसलमानों के पीछे पड़ गया है

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‘इंडिया टुडे’ के टीवी चैनल के न्यूज़ एडिटर राहुल कंवल ने ‘मदरसा हॉटस्पॉट’ नामक जो कार्यक्रम बनाया है उसके खिलाफ एक्टिविस्ट कविता कृष्णमूर्ति का वीडियो अभियान बिलकुल मौजूं है. भारत का मीडिया इन दिनों चाहे जो भी कर रहा हो मगर पत्रकारिता नहीं कर रहा है. ज़ी न्यूज से लेकर आजतक और नेटवर्क-18 तक हरेक टीवी चैनल हर चीज़ को जिहाद से जोड़ने लगा है— कोरोना जिहाद, जमीन जिहाद, लव जिहाद,आर्थिक जिहाद, आदि-आदि. लेकिन आज अगर कोई जिहाद यानी धर्मयुद्ध पर उतारू है तो वह है भारतीय मीडिया, जो भारत के मुसलमानों और इस्लाम के पीछे पड़ा दिख रहा है.

साल 2014 भारत के लिए युगांतरकारी था, केवल इसलिए नहीं कि नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत से प्रधानमंत्री बने थे बल्कि इसलिए भी कि तब तक सच और हकीकत के संदेश देने वाले संदेशवाहक के रूप में काम करता रहा भारतीय मीडिया इसके बाद एक लकड़बग्घे में तब्दील हो गया था. एक ऐसे जंतु के रूप में, जो अपने बेकाबू लालच से पैदा हुए अपने हितों को पूरा करने के लिए अपने शिकार का जीते जी भक्षण कर लेता है या हंसते हुए उसके चीथड़े उड़ा देता है. आज का न्यूज़ मीडिया, खासकर प्राइम टाइम की बहसें बर्बरता की हद तक क्रूर हो गई हैं जिनमें न तो विवेक का ख्याल रखा जाता है और न नैतिकता का.

पत्रकारिता आज खतरे में है और इसके नाम पर जो कुछ हो रहा है वह शुद्ध धंधा है जिसमें कट्टरता, मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का खुला प्रदर्शन होता है. विज्ञापन से कमाई की खातिर दर्शकों की संख्या जुटाने के लिए यह न केवल तमाम हथकंडे अपना रहा है बल्कि भाजपा को देश की उद्धारक के तौर पर पेश करने के लिए पीआर (प्रचार) फर्म की भूमिका भी निभा रहा है. और भाजपा के महिमामंडन के लिए इन दिनों भारतीय मीडिया का पसंदीदा शगल क्या है? इस्लाम के खिलाफ नफरत का बढ़चढ़कर प्रचार, जिसमें तबलीगी जमात की कथित साज़िशों (थूकना और मलत्याग करना आदि) की कहानियां गढ़ना; मुसलमानों पर देशद्रोही होने की तोहमत लगाना और उन्हें पाकिस्तानी बताना और आइएसआइ का पिटठू बताना (खासकर मलयालियों में); और जिहाद, हलाला, तीन तलाक, गोमांस भक्षणआदि के बहाने मुसलमानों की निरंतर बदनाम करने के अलावा खुराफाती किस्म के ऐसे आरोप लगाना भी शामिल है कि ‘भारत के मुसलमान तो जानबूझकर कोरोनो वायरस फैला रहे हैं’.

 

बेशक, सारे मीडिया हाउस ऐसे नहीं हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो सच और खोजी पत्रकारिता के अग्रदूत बनने की कोशिश करते हैं. लेकिन मीडिया ऐसा उद्योग है जिसमें काफी पूंजी लगती है. इसे पैसे चाहिए, खासकर इसलिए कि उसे एचडी क्वालिटी वाले चमकदार टीवी चैनलों और लाखों ग्राहक वाले प्रकाशनों से होड़ लेनी होती है. इसके अलावा, सरकार कभी भी इसे विज्ञापन देने से मना करके इसे दिवालिया बना सकती है. जाहिर है, इसके सामने एक ओर कुआं है तो दूसरी ओर खाई.

सरकारी दखल

जरा बीते दौर से तुलना करें, जब हालात इतने बुरे नहीं थे. इमरजेंसी वाले दौर के सिवाय, दूरदर्शन और आकाशवाणी खांटी समाचार दिया करते थे. प्रसार भारती एक्ट 1990 की धारा 12 (2)(बी) में साफ कहा गया है कि सरकारी प्रसारणकर्ता के काम क्या हैं— उसे ‘सार्वजनिक हित के सभी मामलों के बारे में स्वतंत्र, निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ सूचना पाने के नागरिकों के अधिकार की रक्षा करनी है… सूचना का निष्पक्ष एवं संतुलित प्रवाह बनाए रखने के अलावा किसी मत या विचारधारा की पैरवी न करते हुए परस्पर विरोधी विचारों को भी प्रस्तुत करना है.’ दूरदर्शन के डीडी नेशनल को हालांकि केंद्र सरकार का भोंपू कहा जाता रहा है लेकिन वह आज के टीवी समाचार चैनलों की, जो मुख्यतः पक्षपातपूर्ण सनसनीखेज ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ पर निर्भर होते हैं, तहर जनमत को प्रभावित नहीं करता था. लेकिन दूरदर्शन भी निष्कलंक नहीं रहा है.

2014 में इसने चुनाव से पहले लिये गए मोदी के इंटरव्यू के कुछ अंश संपादित कर दिए थे मगर मोदी ने जब नाराजगी जताई तो उसे पूरा प्रसारित किया. लेकिन इसने 2017 के स्वतन्त्रता दिवस पर त्रिपुरा के तत्कालीन मुख्यमंत्री माणिक सरकार के पहले से रेकॉर्ड किए गए भाषण को प्रसारित नहीं किया, बावजूद इसके कि माकपा नेता माणिक सरकार ने इसे ‘आलोकतान्त्रिक, तानाशाही ‘और ‘असहिष्णुता का प्रदर्शन’ कहकर इसकी निंदा की थी. अब दूरदर्शन दबाव के आगे घुटने टेकता नज़र आ रहा है, जब कि मोदी सरकार प्रसार भारती को भंग करके डीडी नेशनल और आकाशवाणी को सार्वजनिक उपक्रम में तब्दील करके उस पर अपना शिकंजा कसे रखना चाहती है.

जब प्रिंट मीडिया का वर्चस्व था तब प्रामाणिकता बची हुई थी क्योंकि विचारों से ज्यादा खबरों को अहमियत दी जाती थी. लेकिन सोशल मीडिया के उभरते ही उसने भी दम तोड़ दिया. आज जिसके भी पास कैमरा फोन है वह पत्रकार बन बैठा है, और हर किसी के पास सबको सुनाने के लिए ‘पत्रकारीय’ विचार मौजूद है. 800 शब्दों का लेख पढ़ने के मुक़ाबले एक वीडियो देखना ज्यादा आसान है. पूरे पृष्ठ के राजनीतिक विज्ञापनों और क्लासिफाइड पन्नों की संख्या में वृद्धि बताती है कि पिछले छह वर्षों में प्रिंट मीडिया की आज़ादी को किस तरह धक्का लगा है और लोग किस तरह सोशल मीडिया की ओर मुड़े हैं, जिसे मोदी और भाजपा ने अपने लिए जादू की छड़ी की तरह इस्तेमाल किया है.

मुस्लिम पहलू

मुसलमानों के खिलाफ नफरत सोशल मीडिया पर ज्यादा मुखर है लेकिन इसे खुराक और बढ़ावा चौबीसों घंटे नफरत का जहर फैलाने वाले समाचार चैनलों से मिल रहा है. लेकिन यह सवाल कायम है कि भारतीय मीडिया मुसलमानों से इतनी नफरत क्यों करता है? सुधीर चौधरी, अरनब गोस्वामी, दीपक चौरसिया, अमीश देवगन, अंजना ओम कश्यप, रोहित सरदाना सरीखे न्यूज एंकर मुसलमानों के खिलाफ रोज-रोज तोहमतें मढ़ते थकते क्यों नहीं हैं? क्या ऐसा है कि हिंदुओं का बहुमत हमेशा से मुसलमानों से नफरत करता रहा है, और 9/11 कांड के बाद बिन लादेन, अल क़ायदा, आइएसआइएस के उभार के बाद, और 2014 के बाद से यह सामान्य सार्वजनिक चलन बन गया है? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुसलमानों को हिंसक तथा मूर्ख बताने की कट्टर धारणाओं के निरंतर प्रचार ने हिंदुओं को अपने दैनिक जीवन में इन्हें शामिल करने को प्रेरित किया है, भले ही उन्होंने ऐसे कुप्रचारों का खुद कोई अनुभव किया हो या नहीं?

तबलीगी जमात वाला दुष्प्रचार इसका एक उदाहरण है. मतिशून्य भेड़ों के झुंड की तरह करीब 1500 लोगों का एक समूह दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज़ में अटक गया, जबकि उसके आध्यात्मिक ‘गड़रिये’ मौलाना साद ने कोरोना संक्रमण के खतरे के बावजूद मरकज़ को खाली करवाना जरूरी नहीं समझा. लेकिन क्या केवल इसी धार्मिक समूह ने यह काम किया? नहीं!


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तबलीगी जमात का जमावड़ा 13-15 मार्च को हुआ लेकिन सिद्धिविनायक और महाकालेश्वर मंदिरों को 16 मार्च तक बंद नहीं किया गया. शिर्डी के साई बाबा का मंदिर और शनि शिंगनापुर मंदिर जाकर 17 मार्च को बंद किए गए, वैष्णो देवी मंदिर 18 मार्च को किया गया जबकि काशी विश्वनाथ मंदिर 20 मार्च तक—देश के नाम मोदी के संदेश और ‘सोशल डिस्टेन्सिंग’ के उनके निर्देश के एक दिन बाद तक—खुला रहा. कुछ समाचार चैनलों ने इन विसंगतियों का जिक्र किया लेकिन कुल मिलाकर मुसलमानों को—केवल तबलीगी आयोजकों को नहीं– कठघरे पर खड़ा करने की मुहिम पर्दों पर जारी रही. मुसलमानों पर हमले होने लगे, उन्हें सड़कों पर अज्ञात गुंडों द्वारा मारा-पीटा जाने लगा और पुलिस हमेशा की तरह मूक दर्शक बनी रही. जिस मीडिया ने इस जहर को फैलाया वह मुस्लिमों पर हमलों की अनदेखी करती रही.

कोई नयी बात नहीं

भारत में बहुसंख्यकों को एकजुटता की भावना जगाने में फर्जी खबरों का बड़ी तत्परता से इस्तेमाल किया गया है. एक साझा दुश्मन के खिलाफ और उसे परास्त करने के लिए एकजुटता की भावना एक हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी को वोट देकर जगाई गई, जो उनके अधिकारों की रक्षा करे. ‘हम बनाम वे’ का फॉर्मूला हमेशा कारगर रहा है. इसलिए, जेएनयू जैसे अग्रणी उदारवादी संस्थान को कंडोमों और ‘देशद्रोहियों’ का अड्डा कहा जा सकता है. या अयोध्या मसले पर फैसले का स्वागत करते हुए मीडिया यह नारा दे सकता है कि ‘जन्मभूमि हमारी, राम हमारे, मस्जिद वाले कहां से आए?’ या यह कहा जा सकता है कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ आंदोलन विदेशी पैसे से चल रहा था. कोई यह क्यों नहीं बता रहा कि अंधविश्वासी हिंदू तबका कोरोना वायरस से लड़ने के लिए गोमूत्र और गोबर पार्टियां आयोजित कर रहा है ? इन अवैज्ञानिक एवं अस्वास्थ्यकर कार्यों का विरोध क्यों नहीं किया जा रहा है? गुरुद्वारों और मंदिरों में अटके तीर्थयात्रियों के जमावड़े पर सवाल क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? क्योंकि किसी को इसकी परवाह नहीं है कि ‘गैर-मुस्लिम’ लोग गलत काम कर रहे हैं.

ऊपर से तो लगता है कि भारतीय मीडिया मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ लड़ाई में जीत रहा है. लेकिन क्या आपने यह खबर भी पढ़ी है कि दिलशाद अली नाम के एक ‘मुसलमान’ को गुंडों की भीड़ ने बुरी तरह पीट डाला? उसके ऊपर आरोप लगाया गया कि वह जानबूझकर कोरोना वायरस फैला रहा था. लेकिन चूंकि वह बर्बर हमले में बच गया और मोहम्मद अखलाक, जुनैद खान या पहलू खान, आदि की तरह ऊपर नहीं चला गया
इसलिए जो कुछ हो रहा है उससे परेशान होने की जरूरत नहीं है.

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