जानिए, जर्मनी ने हिजबुल्लाह पर प्रतिबंध क्यों लगाया?

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जर्मन सरकार ने हिजबुल्लाह को आतंकवादी संगठन घोषित करते हुए देश में इसकी सभी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया है। जानिए क्या है हिजबुल्लाह और कहां से हुई इसकी शुरुआत।

 

डी डब्ल्यू पर छपी खबर के अनुसार, जर्मनी ने गुरूवार को लेबनान के आतंकी संगठन हिजबुल्लाह पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया। यूरोपीय संघ की तरह अब तक जर्मनी ने केवल इस संगठन की सैन्य गतिविधियों पर ही रोक लगा रखी थी।

 

राजनीतिक रूप से यह अब भी देश में सक्रिय था। लेकिन गुरूवार को इस घोषणा के साथ ही देश भर में इस संगठन के कई ठिकानों पर छापे मारे गए।

 

गृह मंत्री होर्स्ट जेहोफर ने स्थानीय अखबार बिल्ड से कहा, “हिजबुल्लाह एक आतंकदी संगठन है जो दुनिया भर में कई हमलों और अपहरणों के लिए जिम्मेदार है। गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने ट्विटर पर लिखा, “संकट के इस दौर में भी कानून का शासन जारी रहना चाहिए।

 

गुरूवार सुबह से ही बर्लिन, ब्रेमेन, डॉर्टमुंड और मुंस्टर में पुलिस और विशेष बलों ने कई मस्जिदों पर छापेमारी शुरू कर दिया। समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार बर्लिन की अल इरशाद मस्जिद के बाहर सुबह पुलिस की 16 वैन खड़ी दिखी।

 

नकाबपोश पुलिसकर्मियों को मस्जिद में जाते देखा गया। सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार जर्मनी में आधिकारिक रूप से हिजबुल्लाह की मौजूदगी नहीं है लेकिन देश भर में इस संगठन के करीब एक हजार सदस्यों के मौजूद होने का अनुमान हैै।

 

ये जर्मनी का इस्तेमाल एक सुरक्षित जगह के रूप में करते आए हैं जहां ये योजना बनाते हैं, नए सदस्य खोजते हैं और आपराधिक गतिविधियों के जरिए धन जमा करते हैं।

 

गृह मंत्री होर्स्ट जेहोफर ने इस बारे में कहा, “वे जर्मन भूमि पर आपराधिक गतिविधियां कर रहे हैं और हमलों की योजनाएं भी बना रहे हैं।

 

अमेरिका और इस्राएल ने तुरंत ही जर्मनी के इस कदम की सराहना की. इन दोनों देशों ने बहुत पहले ही हिजबुल्लाह को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया था और बाकी देशों से भी ऐसा करने की अपील करते आए हैं।

 

इस्राएल ने इसे “आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक जंग में एक महत्वपूर्ण कदम” बताया है। अमेरिका और इस्राएल दोनों ने ही यूरोपीय संघ से जर्मनी की मिसाल लेते हुए सीख लेने को कहा है।

 

इसकी शुरुआत को समझने के लिए लेबनान के इतिहास पर एक नजर जरूरी है. 1943 में लेबनान में हुए एक समझौते के अनुसार धार्मिक गुटों की राजनीतिक ताकतों को कुछ इस तरह बांटा गया – एक सुन्नी मुसलमान ही प्रधानमंत्री बन सकता था, ईसाई राष्ट्रपति और संसद का स्पीकर शिया मुसलमान। लेकिन यह धार्मिक संतुलन बहुत लंबे वक्त तक कायम नहीं रह पाया।

 

फलीस्तीनी लोगों के लेबनान में आ कर बसने के बाद देश में सुन्नी मुसलामानों की संख्या बढ़ गई। ईसाई अल्पसंख्यक थे लेकिन सत्ता में भी थे. ऐसे में शिया मुसलामानों को हाशिये पर जाने का डर सताने लगा. इसी कारण 1975 में देश में गृह युद्ध छिड़ गया जो 15 साल तक चला।

 

इस तनाव के बीच इस्राएल ने 1978 में लेबनान के दक्षिणी हिस्से पर कब्जा कर लिया। फलीस्तीनी लड़ाके इस इलाके का इस्तेमाल इस्राएल के खिलाफ हमले के लिए कर रहे थे।

 

इस बीच 1979 में ईरान में सरकार बदली और उसने इसे मध्य पूर्व में अपना दबदबा बढ़ाने के मौके के रूप में देखा। ईरान ने लेबनान और इस्राएल के बीच तनाव का फायदा उठाना चाहा और शिया मुसलामानों पर प्रभाव डालना शुरू किया।

 

1982 में लेबनान में हिजबुल्लाह नाम का एक शिया संगठन बना जिसका मतलब था “अल्लाह की पार्टी”। ईरान ने इसे इस्राएल के खिलाफ आर्थिक मदद देना शुरू किया।

 

जल्द ही हिजबुल्लाह दूसरे शिया संगठनों से भी टक्कर लेने लगा और तीन साल में यह खुद को एक प्रतिरोधी आंदोलन के तौर पर स्थापित कर चुका था।

 

साभार- डी डब्ल्यू  हिन्दी