साल 1962 से लेकर 1975 तक भारत और चीन के बीच टकराव का मुख्य बिंदु गलवान घाटी रही है।
प्रभात खबर पर छपी खबर के अनुसार, गलवान घाटी पूर्वी लद्धाख में अक्साई चीन के इलाके में है। चीन वर्षों से इस पर पूरी बेशर्मी से अपना दावा जताता है।
मई के पहले सप्ताह से ही इलाके में भारत और चीन के सैनिक आमने सामने हैं। 15 जून की रात को गलवान घाटी में ही भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिसंक झड़प हो गयी। इस झड़प में भारत के 20 सैनिक शहीद हो गये।
आज हम आपको इसी गलवान घाटी की पूरी कहानी बताने जा रहे हैं। साथ ही आपको ये भी बतायेंगे कि अक्साई चीन की इस घाटी को गलवान घाटी ही क्यों कहा जाता है। हमें पूरी उम्मीद है कि आपको ये कहानी बहुत दिलचस्प लगेगी।
गुलाम रसूल गलवान से क्यों जाना जाता है
इस घाटी का नाम गलवान रखने की कहानी की शुरुआत होती है साल 1878 में। लेह जिले में घोड़ों का व्यापार करने वाले परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ।
नाम रखा गया गुलाम रसूल। चूंकि कश्मीर में घोड़ों का व्यापार करने वाले समुदाय को गलवान कहा जाता है, इसलिये गुलाम रसूल के नाम के आगे गलवान भी लगा दिया गया। पूरा नाम हो गया गुलाम रसूल गलवान।
कहा जाता है कि जब गुलाम रसूल गलवान महज 12 साल के थे, उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। चरवाहे और बंजारे की जिंदगी जीने लगे।
लद्दाख की घाटियों में लगातार घूमते रहने की वजह से उन्हें पहाड़ी रास्तों और दर्रों की अच्छी जानकारी हो गयी थी। कहा ये भी जाता है कि गुलाम रसूल गलवान दुर्गम से दुर्गम घाटी में भी जाने से नहीं कतराते थे।
कौन थे गुलाम रसूल गलवान
गुलाम रसूल गलवान को अपनी इस योग्यता का इनाम मिला। हम सभी जानते हैं कि वो दौर ब्रिटिश राज का था। अंग्रेज अधिकारियों का दल प्राय दुर्गम नदियों, घाटियों, दर्रों और पहाड़ियों की खोज में जाता था। कुछ अंग्रेज पहाड़ों में ट्रैकिंग के लिये भी जाते थे।
उन्हें लद्घाख की उन भूल-भूलैया वाली घाटियों में मदद के लिये किसी स्थानीय आदमी की जरूरत थी। ऐसे में भला गुलाम रसूल गलवान से बेहतर गाइड कौन हो सकता था।
गुलाम रसूल गलवान लगातार अलग-अलग ट्रैकिंग दल के साथ इलाके में उनका गाइड बनकर जाते थे। कई अंग्रेज अधिकारियों का कहना है कि गलवान दुर्गम से दुर्गम इलाकों में भी बड़ी आसानी से चले जाते थे। सीधी खड़ी चट्टानों पर किसी स्पाइडरमैन की तरह चढ़ जाया करते थे। इस वजह से वो कई अंग्रेज अधिकारियों के चहेते बन गये थे।
गुलाम रसूल गलवान ने की थी इस घाटी की खोज
इसी बीच साल 1899 में एक ट्रैकिंग दल को लद्दाख स्थित चांग छेन्मो घाटी के उत्तर में मौजूद इलाकों का पता लगाने के लिये भेजा गया।
ये दल, दरअसल, घाटी से होकर बहने वाली एक नदी के स्त्रोत का पता लगाना चाहता था। इस दल ने मदद के लिये अपने साथ रसूल गुलाम गलवान को भी शामिल कर लिया।
इस दल ने उस दुर्गम घाटी और यहां से होकर बहने वाली नदी के स्त्रोत का पता तो लगा लिया लेकिन वहां फंस गये। मौसम खराब हो गया और वे रास्ता भूल गये। ऐसे वक्त में गुलाम रसूल ने उन्हें घाटी से बाहर निकाला और उनकी जिंदगियां बचाईं।
अधिकारियों ने खुश होकर दिया ईनाम
ट्रैकिंग दल को लीड कर रहा अंग्रेज अधिकारी इस बात से काफी खुश हुआ। उसने गुलाम रसूल गलवान से पूछा कि वो जो चाहेगा, उसे मिलेगा। जितना चाहे इनाम मांग सकता।
तब गलवान ने कहा कि, उसे कुछ नहीं चाहिये। हां, यदि कुछ देना ही चाहते हैं तो इस नदी और घाटी का नाम उसके नाम पर रख दिया जाये अंग्रेज अधिकारी ने उसकी बात मान ली, और घाटी का नाम गलवान घाटी रख दिया। वहां से होकर बहने वाली नदी भी गलवान नदी कहलायी।
बाद में गुलाम रसूल गलवान को लद्दाख के तात्कालीन ब्रिटिश ज्वॉइंट कमिश्नर का मुख्य सहायक नियुक्त कर दिया गया। गुलाम लंबे समय तक इस पद पर बने रहे. गुलाम रसूल गलवान ने लंबा वक्त ब्रिटिश एक्सप्लोरर सर फ्रांसिस यंगहसबैंड के साथ भी बिताया।
जिंदगी पर लिखी किताब सर्वेंट ऑफ साहिब
अंग्रेज अधिकारियों के साथ बिताये गये वक्त, लद्दाख की दुर्गम पहाड़ियों की ट्रैकिंग और अपनी जिंदगी को लेकर गुलाम रसूल गलवान ने एक किताब लिखी। किताब का नाम है, सर्वेंट ऑफ साहिब्स. इस किताब की प्रस्तावना सर फ्रांसिस यंगहसबैंड ने लिखी।
गुलाम रसूल गलवान का निधन
एक भरी-पूरी रोमांचकारी जिंदगी जीने के बाद साल 1925 में गुलाम रसूल गलवान ने दुनिया को अलविदा कह दिया. गुलाम रसूल गलवान का परिवार आज भी लेह के चंस्पा योरतुंग सर्कुलर रोड में रहता है।
गुलाम रसूल गलवान के पोते मोहम्मद अमीन गलवान बताते हैं कि उनके दादा को लद्दाख की घाटियों की बहुत अच्छी जानकारी थी।
परिवार का कहना है कि लद्दाख की एक-एक इंच जमीन के साथ उनके दादा की यादें जुड़ी हैंं। गलवान घाटी तो उनके दादाजी की निशानी जैसी है।