यूपी- इस सीट पर इतनी आबादी होने के बावजूद किसी भी पार्टी ने मुस्लिम को कभी नहीं बनाया उमीदवार

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सभी राजनीतिक दल भले ही मुसलमानों को साथ लेकर चलने का दावा करते हों, लेकिन इन दावों में कितनी सच्चाई है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में एक ऐसी भी लोकसभा सीट है जहां आज़ादी के बाद से आजतक किसी भी राजनीतिक दल ने मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया।

बलिया और देवरिया ज़िले के हिस्सों को मिलाकर बना सलेमपुर संसदीय क्षेत्र का इतिहास काफी चौंकाने वाला है। यहां मुसलमान आबादी के लिहाज़ से दलितों और यादवों के बाद तीसरे नंबर पर हैं, लेकिन आज़ादी के बाद से आजतक सभी राजनीतिक पार्टियों ने यहां मुस्लिम उम्मीदवारों को नज़रअंदाज़ किया है।

लोकल न्यूज़ पोर्टल बलिया ख़बर की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस सीट पर कांग्रेस से लेकर बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और समाजवादियों का कब्ज़ा रह चुका है। लेकिन ख़ुद को मुस्लिम हितैशी कहने वाली इन पार्टियों ने भी यहां से कभी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा। ऐसा नहीं है कि मुसलमानों ने कभी इस सीट के अपनी दावेदारी पेश नहीं की।

यहां के स्थानीय मुस्लिम नेता बीजेपी, कांग्रेस से लेकर बीएसपी और समाजवादी पार्टी तक से टिकट की गुहार लगा चुके हैं, लेकिन इनकी गुहार को किसी भी पार्टी ने आजतक नहीं सुना। जिसके नतीजे में यहां कोई भी मुस्लिम प्रत्याशी किसी भी पार्टी से लोकसभा चुनाव नहीं लड़ सका। 2019 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं।

जिसके मद्देनज़र एक बार फिर से मुस्लिम उम्मीदवारों ने अपनी-अपनी पार्टी से टिकट की मांग करना शुरु कर दिया है, लेकिन इस बार भी किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट मिलने के आसार नज़र नहीं आ रहे। तकरीबन 25 सालों से बीएसपी में सक्रिय कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रहे अशफ़ाक़ हसन उर्फ दुलाख ने भी इस बार बीएसपी से लोकसभा टिकट की मांग की है। उन्होंने बलिया ख़बर से बात करते हुए बताया की , इलाके में लोग उनको काफी पसंद करते हैं, अगर उन्हें बीएसपी से टिकट मिलता है तो चुनाव जीत सकते हैं। उनका यह दावा जातिगत समीकरण के हिसाब से भी सही है। मुसलमान इलाके में तीसरी सबसे बड़ी आबादी हैं। इस लिहाज़ से अगर अशफ़ाक़ हसन को टिकट मिलता है तो दलित-मुस्लिम गठजोड़ से बीजेपी के कब्ज़े वाली इस सीट पर बीएसपी को जीत मिल सकती है। लेकिन अभी तक के इतिहास को देखते हुए अशफाक हसन को टिकट मिलना दूर की कौड़ी ही नज़र आता है।

वहीं समाजवादी पार्टी की बात करें तो यहां से पार्टी के ज़िला अल्पसंख्यक सेल के अध्यक्ष मतलूब अख्तर भी पार्टी की ओर से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं। लेकिन इस सीट के इतिहास को देखते हुए वह दावा तक पेश करने में संकोच महसूस कर रहे हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि इस सीट पर जब मुसलमानों की इस पसमांदा हालत के बारे में तमाम दलों के नेताओं से पूछा गया तो उन्होंने यह कहने में बिल्कुल भी देर नहीं की कि पार्टी टिकट उन्हीं को देती है जो चुनाव जीत सकें।

उनके मुताबिक, तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाले इस संसदीय क्षेत्र में मुसलमान इस काबिल नहीं है कि वह पार्टी का टिकट मिलने के बाद चुनाव जीत सकें। अब सवाल यह उठता है कि पार्टी बिना टिकट दिए ही मुस्लिम नेताओं की काबिलियत को कैसे परख सकती है? यह तो परीक्षा लिए बग़ैर ही फेल कर देने जैसा है। मुस्लिम नेताओं की काबिलियत का अंदाज़ा उन्हें टिकट देने के बाद ही पता लग सकता है, जो अभी तक नहीं दिया गया है।

ऐसे में हम उम्मीद करते हैं कि इस बार पार्टियां अपने मुस्लिम नेताओं को मौका देने के बाद ही उनकी काबिलियत की बात करेंगी। देश की मौजूदा दौर की सियासत में मुसलमानों की हालत को देखकर मशहूर शायर मुनव्वर राणा का एक शेर याद आ गया… ‘मुसाहिब की सफों में भी मेरी गिनती नहीं होती यह वह मुल्क है जिसकी मैं सरकारें बनाता था’। ये शेर मौजूदा दौर में देश की सियासत में मुसलमानों की दयनीय हिस्सेदारी को साफ़ दौर पर बयान करता है।

तकरीबन 13.5 फीसद आबादी वाले मुसलमानों की लोकसभा में महज़ 4.2 फीसद ही नुमाइंदगी रह गई है। इस वक्त लोकसभा में 24 मुस्लिम सांसद हैं। यह तादाद 1980 की 7वीं लोकसभा में मुस्लिम नुमाइंदगी की आधी है। 1980 में लोकसभा में 49 मुस्लिम सांसद थे।