कर्नाड के निधन ने हमें दरिद्र बना दिया

   

मशहूर कन्‍नड़ लेखक, रंगकर्मी और पद्म भूषण, पद्मश्री व ज्ञानपीठ पुरस्कार आदि से नवाजे जा चुके गिरीश कर्नाड अब हमारे बीच नहीं। उनका अपनी मूल भाषा यानी कन्‍नड़ और इसके साहित्य से गहरा जुड़ाव रहा। वे सोचते थे तो कन्‍नड़ में और लिखते भी थे कन्‍नड़ में। हम कह सकते हैं कि वे कन्‍नड़ के रबिंद्रनाथ टैगोर थे।
उनकी इसी खासियत के चलते मैं पिछले साल उनके पास एक मशविरे के लिए गया था। बात कुछ ऐसी है कि हम गांधीजी के ‘हरिजन पत्रिका में 1928 में ईश्वर के बारे में लिखे आलेख के बारे में तो जानते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘सत्य ही ईश्वर है। लेकिन उस आलेख में उन्होंने एक और बात लिखी थी, जो कम ही लोगों को ज्ञात है। गांधीजी ने उस आलेख में मैसूर के कुछ ‘गरीब किसानों के साथ अपनी बातचीत का उल्लेख किया था। किसानों से बातचीत में गांधीजी ने पूछा – ‘मैसूर पर किसका शासन है? और उन्हें शानदार जवाब मिला, ‘किसी देवता का! मैं यह जानने को उत्सुक था कि किसानों ने वास्तव में क्या कहा होगा। लिहाजा मैंने गिरीश कर्नाड से पूछा कि 1927 के मैसूर में ‘गरीब किसानों ने वास्तव में ‘किसी देवता के लिए मूलत: कन्‍नड़ में क्या शब्द इस्तेमाल किए होंगे।

”याव्दो देवरु या फिर ‘वारो देवरु इसका सही अनुवाद हो सकता है, उन्होंने जवाब दिया। लेकिन साथ ही साथ यह भी कहा कि उन्होंने जो शब्द सुझाए हैं, वे कुछ ज्यादा ही साहित्यिक हैं और किसी किसान के बोलचाल के लिहाज से जटिल व नाकाफी लगते हैं। फिर उन्होंने री-टेक के अंदाज में कहा- ‘हो सकता है उन्होंने सिर्फ ‘देवरु या हद से हद ‘आ देवरु कहा हो, जो निराशा, नाउम्मीदी को दर्शाता है। यही तो मुझे जानना था। कर्नाड जानते थे कि शब्द महज शब्द नहीं होते। शब्द वास्तव में बोलने वाले के दिमाग, दिल और रूह की स्थिति के बारे में भी कुछ कहते हैं। स्पष्ट तौर पर किसानों द्वारा गांधीजी को दिए गए जवाब में एक तरह की निराशा की झलक थी। एक तरह की निवृत्ति का भाव। ‘आ देवरु… या कहें कि ‘कोई देवता… में यह भाव समाहित लगता है। कर्नाड द्वारा की गई इस व्याख्या से मुझे न सिर्फ समानार्थी शब्द मिला, बल्कि नब्बे साल पहले मैसूर के किसानों की अंदरूनी स्थिति की झलक भी मिली- अनमोल!

आज भारत में ऐसे कम ही लोग होंगे, जो एक से ज्यादा भारतीय भाषाएं और अंग्रेजी न सिर्फ सहजतापूर्वक बल्कि उत्तम ढंग से लिख तथा बोल सकते हैं। हम ऐसे बहुभाषी लोग हैं, जिनकी एक भाषा में प्रवीणता है और कुछ अंग्रेजी व कुछ हिंदी भी जानते हैं। हालांकि यह कोई ऐसी बात नहीं जिस पर विलाप किया जाए, लेकिन हकीकत यही है कि इसके नतीजतन हम अलग-अलग भाषा, संस्कृति और ज्ञान के शिकंजों में जकड़कर रह गए हैं। एक भारत, दूसरे भारत से अनजान है, भारतीय अपने साथी-भारतीयों से अजनबी हैं।

गिरीश को अपनी कन्‍नड़ भाषा से प्यार था और वे इसे अपनी पीढ़ी के किसी भी अंग्रेजीदां, दुनिया घूमने वाले, बेंगलुरु-बेस्ड विचारकों से कहीं बेहतर जानते थे। वे कन्‍नड़ में सोचते थे और मुझे यकीन है कि उन्हें कन्‍नड़ गुणन सारणी भी याद होगी, जो किसी के भी ‘मातृभाषा ज्ञान को परखने की तयशुदा कसौटी है। नाट्य विधा में उन्होंने अपना ज्यादातर काम अपनी पसंदीदा भाषा कन्‍नड़ में ही किया। उन्होंने जब ‘ययाति लिखा, तब वे 23 साल के थे और ‘तुगलक उन्होंने 26 साल की उम्र में लिखा था। ये नाटक काफी सफल रहे और इसके बाद उन्होंने एक ऐसा नाटक लिखा, जिसने न सिर्फ उन्हें एक गंभीर बल्कि सर्वकालिक भारतीय नाटककारों में शुमार कर दिया। यह नाटक था ‘हयवदन (1971), जो वैसे तो थॉमस मन की कथा ‘ट्रांसपोज्ड हेड्स पर आधारित था, लेकिन यह मूलत: प्राचीन संस्कृत ग्रंथ ‘कथासरितासागरकी एक गाथा से प्रेरित था।

नाट्य विधा की अपनी महान सौगातों के साथ यह स्वाभाविक ही था कि गिरीश ने अभिनेता, निर्देशक और निर्माता के तौर पर कन्‍नड़ के साथ-साथ हिंदी सिनेमा की ओर भी रुख किया। प्रतिष्ठित हिंदी फिल्म ‘उत्सव (1984) की कर्नाड ने न सिर्फ पटकथा (कृष्ण बसरुर के साथ मिलकर) लिखी, बल्कि इसका निर्देशन भी किया। उनकी कन्‍नड़ कृतियों की तरह यह फिल्म भी एक प्राचीन संस्कृत रचना शूद्रक की ‘मृच्छकटिका से प्रेरित थी। शशि कपूर, रेखा, शंकर नाग, अनुपम खेर, नीना गुप्ता और युवा शेखर सुमन अभिनीत इस फिल्म में समकालीन संवेदनाओं को झंकृत करने लिहाज से सबकुछ था। इसका संगीत (लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल) कर्णप्रिय था, अभिनय भी सधा हुआ था। किंतु कर्नाड ने एक प्राचीन साहित्य रचना को जिस अद्भुत ढंग से आधुनिक सिनेमा में ढाला और पेश किया, उसी ने इसे इतना सम्मोहक बना दिया।

कर्नाड ने न सिर्फ भाषाओं को आपस में जोड़ा, बल्कि पीढ़ियों को भी जोड़ने का काम किया। कर्नाड के तमाम प्रशंसकों की कुछ पसंदीदा रचनाएं होंगी। मेरी पसंदीदा रचना है- ‘तुगलक। एक ‘बुद्धिमान सनकी नायक, उसका काल्पनिक आदर्शवाद, उसकी बर्बरता और उसके बाद उसका पतन इतिहास के जरिए नव-सभ्यता के एक त्रासद अध्याय की कहानी कहता है। अब कर्नाड द्वारा किेया गया तुगलक का यह चित्रण कितना तथ्यों पर आधारित है और कितना दंतकथाओं पर, यह इतिहासकारों पर छोड़ दें। लेकिन उसका अपने साम्राज्य की नई राजधानी दौलताबाद को बनाने का स्वप्न, जहां पर हिंदू-मुस्लिम परस्पर सद्भाव के साथ रहें, नेहरू के सेकुलर रिपब्लिक के स्वप्न जैसा ही लगता है। इस नाटक में सुल्तान का गुलाब और गुलाब उद्यान नेहरू के विजन को ताकतवर ढंग से इंगित करते लगते हैं।

तो क्या कर्नाड का नाटक ‘तुगलक राजनैतिक है? इसे देखकर कुछ ऐसा आभास तो होता है। यहां पर हमें याद रखना चाहिए कि यह 1964 में लिखा गया था, जब नेहरू का निधन हुआ था। लेकिन यह स्पष्ट तौर पर राजनीतिक नहीं है। यह प्रोपेगंडा नहीं है। यह कला है, उच्चकोटि की कला। गिरीश कर्नाड हमारे दौर के एक ऐसे अजीम शख्स थे, जिन्हें साहित्य का, कला का और यहां तक कि सौंदर्य-शास्त्र का दार्शनिक कहा जा सकता है। उनका मानना था कि कला, यहां तक कि जिसे क्लासिकल (शास्त्रीय) कहा जाए, वह भी कुलीन या प्रभुत्ववादी वर्गों का खिलौना नहीं है। वह समूचे समाज की संपत्ति है। उन्होंने ‘फोक और ‘क्लासिकल, ‘निम्न व ‘उच्च कला के भेद को मिटा दिया। लेकिन कला के दार्शनिक होने से भी बढ़कर वे मानवीय स्थिति के दार्शनिक थे। दर्शन में सोसायटी (समाज) का चिंतन प्रमुख रहा है। कर्नाड एक समाज-दार्शनिक थे।

हमें आज अपने देश में सामाजिक दार्शनिकों की जरूरत है। ऐसे महिला व पुरुष जो हमसे, हम जैसे होकर, हमारे बारे में बात करें। न कि हमसे ऊंची स्थिति (चाहे वह धार्मिक हो या राजनीतिक) में बैठकर। हमें ऐसे दार्शनिक चाहिए, जो हमारे बारे में कड़वी हकीकत बयान कर सकें कि हम कमजोरों (बच्चे, महिलाएं, आदिवासी, अल्पसंख्यक, कैदी, शारीरिक-मानसिक रूप से नि:शक्त, ट्रांसजेंडर्स आदि) के साथ कैसा बर्ताव करते हैं। जरा देखें कि हम नि:शक्तों के लिए या नौकरों के लिए कैसे अपमानजनक शब्द इस्तेमाल करते हैं। जब भी कोई कलाकार मरता है, तो कला रोती है। जब कोई दार्शनिक मरता है, तो विचार रोते हैं। लेकिन जब कोई ऐसा कलाकार मरता है, जो दार्शनिक भी हो, तो जिंदगी रोती है। कर्नाड के निधन ने हमें दरिद्र बना दिया है।

(लेखक पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल हैं)