मीडिल इस्ट में इस मुस्लिम देश की बढ़ती ताक़त ने सऊदी अरब को परेशान किया है?

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सऊदी अरब किसी भी क़ीमत पर मध्यपूर्व में ईरान के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना चाहता है।

पार्स टुडे पर छपी खबर के अनुसार, 9 जुलाई 2016 को सऊदी अरब की जासूसी एजेंसी के प्रमुख प्रिंस तुर्की बिन फ़ैसल ने अचानक पेरिस में आतंकवादी संगठन एमकेओ के सम्मेलन में भाग लिया।

ईरान विरोधी आतंकवादी गुट के सम्मेलन में भाग लेने वाले वह पहले वरिष्ठ सऊदी अधिकारी थे। इस सम्मेलन में उन्होंने ईरान में इस्लामी शासन को उखाड़ फेंकने की अपील की।

इसके तुरंत बाद ईरान की इस्लामी क्रांति को उखाड़ फेंकने के लिए इस देश में सैकड़ों आतंकवादी कार्यवाहियां करने वाले एमकेओ की प्रमुख मरयम रजवी और अधिक सक्रिय हो गईं। ईरान के कुर्दिस्तान प्रांत में और पाकिस्तान से लगी ईरान की सीमा पर ईरानी सुरक्षा बलों पर हमले शुरू हो गए।

इन घटनाओं से तेहरान और रियाज़ के बीच टकराव को एक नई दिशा मिल गई।

दर असल, अमरीका और इस्राईल, जो सीधे ईरान से दो दो हाथ करने से कतराते रहे हैं, सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देशों को ईरान से टकराकर अपना हिसाब किताब बराबर करना चाहते हैं, ताकि इस तरह वे क्षेत्र में अपने हितों को सुरक्षित रख सकें।

इसी लिए तेहरान और रियाज़ के बीच तनाव को अमरीका और उसके सहयोगी एक “ग्रेट गेम” के तौर पर देखते हैं।

पिछले एक दशक के दौरान अमरीका यह भरपूर कोशिश रही है कि मध्यपूर्व में ईरान के बढ़ते दबाव को रोकने के लिए सऊदी अरब और फ़ार्स खाड़ी के अन्य अरब देशों को ईरान के मुक़ाबले में ला खड़ा करे। सीरिया और इराक़ में आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध हो या यमन और बहरीन का संकट, सऊदी अरब को फ़्रंट पर रखकर ईरान के प्रभाव को रोकने का प्रयास किया गया।

हालांकि सऊदी अरब द्वारा ईरान के प्रभाव को रोकने का इतिहास पिछले दशक तक ही सीमित नहीं है, बल्कि 1979 में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद 1980 में जब ईरान के पूर्व तानाशाह सद्दाम ने ईरान पर सैन्य चढ़ाई की तो सऊदी अरब ने बढ़ चढ़कर सद्दाम का साथ दिया।

1990 के दशक में तालिबान ने जब काबुल पर क़ब्ज़ा तो तब भी सऊदी अरब ईरान के ख़िलाफ़ तालिबान के साथ खड़ा हुआ नज़र आया।

सऊदी अरब ने परमाणु कार्यक्रम को लेकर ईरान के ख़िलाफ़ अमरीकी दबाव और प्रतिबंधों का भी बढ़चकर समर्थन किया है और वह तेहरान के ख़िलाफ़ सैन्य कार्यवाही के लिए भी वाशिंगटन और तेल-अवीव पर दबाव डालता रहा है। हालांकि सऊदी अरब हमेशा ख़ुद सीधे ईरान से टकराने से बचता रहा है।

ईरान के मुक़ाबले में हर मोर्चे पर मिलने वाली हार ने अब सऊदी अरब और उसके सहयोगियों को काफ़ी हद तक निराश कर दिया है और अब एक बार फिर उन्होंने इराक़ और लेबनान में विरोध प्रदर्शनों से काफ़ी उम्मीदें लगा रखी हैं, लेकिन अगर यहां भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी तो क्षेत्र में ईरान का लोहा मानने के अलावा उनके विशेष रूप से सऊदी अरब के पास कोई विकल्प बाक़ी नहीं रहेगा।