मिर्ज़ा ग़ालिब: जिसने दिल खोलकर दरिया को भी साहिल बांधा

   

‘मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहे जिस वक्त – मैं गया हुआ वक्त नहीं कि फिर आ भी नहीं सकूं। जी हां, ये अंदाज-ए-बयां उस मशहूर-ओ-मारूफ शायर का है जिसे मिर्ज़ा ग़ालिब कहा जाता है। आज गालिब की पुण्यतिथि है। उस मरहूम शायर की जिसने वक्त के साथ चलते हुए कई बार वक्त के आगे की बात अपने साहित्य के माध्यम से कही।

भास्कर डॉट कॉम के अनुसार, आगरा में जन्में (27 दिसंबर 1797) गालिब का आखिरी दौर कहते हैं, मुश्किलात में गुजरा। लेकिन वो फिर भी दिल की बात को कागज पर उतारते रहे। ना थके और ना रुके। उनका निधन 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में हुआ।

बहादुरशाह जफर का वो सुनहरा दौर बीत चुका था। मियां गालिब ने वक्त को लेकर जो बात कही वो उनका नजरिया था। और सटीक था। हकीकत भी यही है कि गुजरा हुआ वक्त लौटकर नहीं आता।

और अगर आता होता तो मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग खान यानी हमारे, आपके और साहित्य के इस दुनिया के ग़ालिब इस दौर में भी साथ होते। ग़ालिब ने क्या लिखा? ये सवाल ही बेमानी है। पूछा तो ये जाना चाहिए कि इस मिर्जा ने दुनिया के किस मिजाज पर नहीं लिखा। इंसानी रिश्तों की बात हो या फिर इश्क के समंदर की।

ख्वाहिशों का जिक्र हो या इंसानियत के उसूलों का। मिर्ज़ा ग़ालिब ने जो लिख दिया, शायद कोई उसके आसपास भी नहीं गया। एक जगह वो इश्क पर तंज भी करते हैं। लिखते हैं- इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के।

हालांकि, इस अंदाज को आप उनका मजाकिया लहजा ही समझिए क्योंकि इसी इश्क की वो अपने अल्फाजों में इबादत भी करते नजर आते हैं। एक शेर में ग़ालिब कहते हैं- हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां- लेकिन फिर भी कम निकले। एक और अंदाज देखिए जिसमें वो खुद के होने पर ही सवालिया निशान लगाते हैं।

गालिब कहते हैं- न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता। डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।। ऐसे ही अनगिनत मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी और कोट्स जो उर्दू साहित्य को धनी बनाते हैं।