मुसलमानों की चालाकी, महागबंधन के मुस्लिम उम्मीदवारों को जीता दिए!

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कयास लगाए जा रहे थे कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है. लेकिन नतीजों को देखकर तो ऐसा लगता है कि नुकसान तो दूर गठबंधन बीजेपी को चुनावी मुकाबले में कड़ी टक्कर भी नहीं दे सका.

लोकसभा चुनाव में ये माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) का गठबंधन भारतीय जनता पार्टी को कड़ी टक्कर देगा. साथ ही ये गठबंधन शायद बीजेपी को काफी नुकसान भी पहुंचा दे.

लेकिन टक्कर देना तो दूर कई जगह तो ये गठबंधन ठीक से मुकाबले में भी नहीं दिखा. ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ और इन पार्टियों की सोशल इंजीनियरिंग इन चुनावों में क्यों काम नहीं कर सकी.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की पहचान मुख्य रूप से पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी के रूप में होती है. वहीं बहुजन समाज पार्टी दलितों की पार्टी के रूप में जानी जाती है.

ऐसा भी नहीं है कि इन दलों में दूसरे समुदाय के लोग नहीं हैं या फिर अन्य समुदाय के वोट इन्हें नहीं मिलते हैं लेकिन सालों से इनका पारंपरिक वोट बैंक यही समुदाय रहे हैं. बाकी समुदायों का प्रतिनिधित्व और निष्ठा देश, काल और परिस्थिति पर ही निर्भर होती है.

जहां तक गठबंधन का सवाल है तो सपा और बसपा इस उम्मीद में साथ आई थीं कि उन्हें पिछड़ी और दलित जातियों के वोट के साथ यदि अल्पसंख्यकों यानी मुस्लिमों का एकतरफा वोट मिल गया तो पूरे राज्य में राजनीतिक समीकरण इस तरह के हो जाएंगे कि बीजेपी समेत कोई और पार्टी कहीं मुकाबले में ही नहीं दिखेगी.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधान सभा चुनाव में ये आंकड़े भी कुछ ऐसा ही कह रहे थे और इन पर मुहर लगा दी पिछले साल हुए फूलपुर, गोरखपुर और कैराना लोकसभा के उपचुनावों ने. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में जातियों का यह समीकरण सीटों में तब्दील नहीं हो सका.

उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी करीब 60 फीसदी है. वहीं ऐसा भी नहीं माना जा सकता कि सभी दलित और सभी पिछड़ी जातियां इन्हीं पार्टियों के प्रति निष्ठा रखती हों.

बावजूद इसके यादव समुदाय समाजवादी पार्टी का कोर वोटर समझा जाता है और दलितों में जाटव समुदाय बहुजन समाज पार्टी का कोर वोटर माना जाता है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सीमित जाट समुदाय का प्रतिनिधत्व करने वाली राष्ट्रीय लोकदल भी इस गठबंधन में शामिल थी. इनके साथ यदि मुस्लिमों की आबादी के प्रतिशत को भी जोड़ दिया जाए तो ये करीब पचास प्रतिशत बैठता है.

इसी आंकड़े के साथ गठबंधन के नेता राज्य में लोकसभा की 80 में से कम से कम 60 सीटें जीतने का अनुमान लगाए बैठे थे लेकिन जब परिणाम आए तो गठबंधन को महज 15 सीटों पर संतोष करना पड़ा. इनमें भी समाजवादी पार्टी तो महज पांच सीटों पर ही सिमट गई और बसपा के खाते में दस सीटें गईं. बीजेपी को 62 सीटें और उसकी सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिलीं.

साभार- डी डब्ल्यू हिन्दी