सऊदी अरब के इस खुबसूरत शहर को यूनेस्को ने दी जगह, बना विश्व धरोहर!

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अरब देशों का ज्यादातर हिस्सा रेगिस्तान है। यहां के ज्यादातर देशों में इस्लाम को मानने वाले रहते हैं। लेकिन, इस्लाम धर्म ज्यादा पुराना नहीं। इस्लाम के उदय से पहले अरब देशों में दूसरे धर्मों को मानने वाले रहा करते थे।

डेली न्यूज़ पर छपी खबर के अनुसार, इन्हीं में से एक समुदाय था नेबेतियन का। सऊदी अरब से लेकर फिलिस्तीन में गाजा पट्टी तक नेबेतियन समुदाय का राज था। ये लोग रेत में से पानी निकालने और पानी के संरक्षण के लिए जाने जाते थे। इसके अलावा मशहूर ‘स्पाइस रूट’ पर भी इनका कब्जा था।

भारत और पूर्वी एशिया से मसाले जो यूरोप जाया करते थे, उन पर ये लोग टैक्स वसूला करते थे। ऊंटों के कारवां, नेबेतियन सल्तनत से गुजरते वक्त टैक्स भरा करते थे। अरब देशों में आज भी नेबेतियन सल्तनत के निशान मिलते हैं।

उस दौर के शहर, इमारतें और कब्रिस्तान को आज भी रेगिस्तान ने अपने दामन में छुपा रखा है। सबसे मशहूर है जॉर्डन का पेत्रा शहर। लेकिन सऊदी अरब में भी नेबेतियन सल्तनत के एक शहर के खंडहर छुपे हुए हैं।

इस जगह का नाम है मदैन सालेह। ये नेबेतियन सल्तनत का दूसरा बड़ा शहर था। यूनेस्को ने इसे विश्व की धरोहर का दर्जा दिया हुआ है। मदैन सालेह स्पाइस रूट का अहम ठिकाना था। इसने नेबेतियन सल्तनत में बहुत अहम रोल अदा किया था।

पर चूंकि ये शहर बसाने वाले लोग गैर इस्लामिक थे, इसलिए सऊदी अरब में मदैन सालेह कोई नहीं आता-जाता। आज रेगिस्तान के बीच कुछ खंडहर ही बचे हैं जो मदैन सालेह के शानदार इतिहास की गवाही देते हैं। लोग नहीं आते, शायद इसकी वजह से भी ये खंडहर अब तक बचे हुए हैं।

मदैन सालेह, सऊदी अरब के हेजाज सूबे में पड़ता है। ये राजधानी रियाद से करीब एक हजार किलोमीटर दूर है। टूरिस्ट गाइड बताते हैं कि मदैन सालेह, स्पाइस रूट का बेहद अहम हिस्सा था। पूर्वी देशों से मसाले लादकर आते हुए ऊंटों के कारवां यहां रुका करते थे।

वो यहां से भूमध्य सागर स्थित बंदरगाहों को जाया करते थे। जहां से फिर मसाले समंदर के रास्ते यूरोप पहुंचते थे। मदैन सालेह का इलाका नखलिस्तान था। यहां पानी की सुविधा थी। इसलिए रेगिस्तान में सफर करने वाले यहां रुककर सुस्ताते थे, प्यास बुझाते थे।

आगे के सफर के लिए पानी लेते थे और आगे बढ़ते थे। अक्सर उनके ऊंटों के झाबे में लोहबान और दूसरे मसाले हुआ करते थे। मदैन सालेह में उन्हें नेबेतियन सल्तनत को टैक्स भरना पड़ता था। ईसा के 106 साल बाद रोमन साम्राज्य ने नेबेतियन सल्तनत को जीतकर अपने में शामिल कर लिया था।

बाद में लाल सागर से होते हुए मसाले के कारोबार का रास्ता खुल गया। इसी के चलते मदैन सालेह जैसे रेगिस्तानी शहर वीरान और खंडहर हो गए। यहां पर जाने पर आपको कतार से बनी हुई 131 कब्रें मिलती हैं। ये बेहद शानदार कब्रें हैं। शायद ये राजशाही के सदस्यों की कब्रें हैं। इन पर तरह-तरह की नक्काशी की हुई है।

बाज बने हैं। बड़े-बड़े बुत बने हैं। इनकी दीवारों पर अरामाइक में जिसकी कब्र है उसके बारे में लिखा है। साथ ही नक्काशी करने वाले संगतराश का नाम भी लिखा है। मकबरों पर लिखी इबारत से मदैन सालेह के बाशिंदों के बारे में दिलचस्प मालूमात हासिल होती है। मसलन उनके नाम क्या थे।

वो किस खानदान से ताल्लुक रखते थे। वो क्या काम करते थे और किस देवता को पूजते थे। नेबेतियन सल्तनत का लिखित इतिहास नहीं मिलता। सो, इन मकबरों और शहर की दूसरी बची हुई इमारतों पर दर्ज इबारतों से उस दौर के बारे में जानकारी मिलती है।

ज्यादातर इबारतें अरामाइक में हैं। ये यहूदी जबान, इस्लाम धर्म के उदय से पहले मध्य-पूर्व में बड़े पैमाने पर बोली जाती थी। अरामाइक जानना उस दौर में कारोबार और व्यापार के लिए बेहद जरूरी था।

हालांकि नेबेतियन लोग अरबी भाषा की शुरुआती बोली भी इस्तेमाल किया करते थे, क्योंकि कुछ लेख अरबी में लिखे हुए भी मदैन सालेह में मिले हैं। मदैन सालेह के सभी मकबरों में कस्र अल फरीद का मकबरा सबसे मशहूर और विशाल है। यहां से रेगिस्तान में दूर तक नजर जाती है। सुनहरे पत्थर की इमारत यूं लगती है मानो कोई टीला रेगिस्तान में से निकला हुआ हो।

जहां पेत्रा शहर के खंडहरों को देखने के लिए बड़ी तादाद में सैलानी आते हैं, वहीं मदैन सालेह में सन्नाटे का राज रहता है। इसकी बड़ी वजह सऊदी अरब के इस्लामिक नियम-कायदे भी हैं। मदैन सालेह के पास ही जबाल इथलिब स्थित है।

माना जाता है कि यहा नेबेतियन देवता दुशारा को पूजा जाता था। दुशारा, पहाड़ों के देवता थे। जबाल इथलिब स्थित मंदिर की दीवारों पर दूसरे देवी-देवताओं की तस्वीरें भी उकेरी गई हैं।

इस इलाके में पुरानी नहरों के निशान भी मिलते हैं, जिनके जरिए नेबेतियन लोग पानी को जमा करते थे।

यहां की पहाड़ी पर खड़े होकर आप सदियों पहले गुजरते हुए ऊटों के कारवां का तसव्वुर कर सकते हैं। कारोबारी इन रास्तों से लोबान और दूसरे मसालों की खेप, भूमध्य सागर स्थित बंदरगाहों तक पहुंचाते थे। मगर रोमन साम्राज्य के कब्जे में आने के बाद इस इलाके की अहमियत खत्म हो गई।

लोग समंदर के रास्ते आने-जाने लगे। अब आज यहां रेगिस्तान के बीचो-बीच बचे हुए खंडहर बचे हैं। जो सदियों पहले के सुनहरे दौर की गवाही देते हैं।