पटना : तमाम अटकलों और उम्मीदों के उलट राष्ट्रीय जनता दल ने बेगूसराय की सीट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लिए नहीं छोड़ी। और यह तय हो गया कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार विपक्षी गठबंधन के साझा उम्मीदवार नहीं होंगे। आरजेडी के इस फ़ैसले से कई सवाल खड़े हो गए हैं। इस फ़ैसले से सिर्फ़ बेगूसराय या कन्हैया कुमार ही नहीं, बिहार की राजनीति, राज्य के सामाजिक समीकरण और राष्ट्रीय जनता दल की रणनीति से जुड़ी कई बातें भी खुल कर सामने आती हैं।
बेगूसराय से तनवीर हसन को मनोनीत कर तेजस्वी बुरी राजनीति में लिप्त हैं जो एक गलत निर्णय था और अब फैसल अली जो भाजपा मुख्तार नकवी के मीडिया सलाहकार थे, को शिवहर से नामित किया गया है। ये अवसरवाद हैं और राजद पर मुस्लिम निर्भरता के साथ खेल रहे हैं जो बेहद गलत है।
आखिर गया के सैयद फैसल अली कौन है? उसे क्यों और कैसे मिलीं शिवहर? क्या वह NaMo कैबिनेट सदस्यों मुख्तार अब्बास नकवी और राजनाथ सिंह के करीब है? अली अनवर अंसारी को शिवहर क्यों नहीं? डॉ एजाज अली को क्यों नहीं? क्योंकि उनके पास सक्रियतावाद, सामाजिक सेवाओं के विरोधी हैं। वे सामाजिक न्याय के चेहरे हैं। डॉ शकील को क्यों नहीं? एम ए ए फातमी को क्यों नहीं? इस पागलपन में कुछ नियम तो होनी चाहिए! इस एक व्यवस्थित विघटन पर संदेह तो है। क्योंकि ऐसा नहीं किया है तेजस्वि ने! आख़िरकार आपने पुराने प्रेरणा के रघुवंश प्रसाद सिंह की जगह उसने नहीं ली! जिसे भुलाया नहीं जाना चाहिए और न ही माफ किया जाना चाहिए।
क्योंकि लालू यादव के नेतृत्व वाले राजद को कन्हैया से जुड़े कई विवादों के चलते उनके चुनाव जीतने की क्षमता पर संदेह था। राज्य सभा सांसद और राजद के प्रवक्ता मनोज झा ने कहा था कि भाकपा-राजद के बीच गठबंधन नहीं हो सकता था क्योंकि राजद अपने उम्मीदवार तनवीर हसन की बेगूसराय में लोकप्रियता और उनके द्वारा किए गए कार्यों के मद्देनजर कोई समझौता करने को तैयार नहीं थी।
उन्होंने कहा था कि “राजद बहुत मजबूत ताकत रही है। 2014 के चुनावों में तथाकथित मोदी लहर में भी हमारे उम्मीदवार को लगभग चार लाख वोट मिले थे और तब से उन्होंने बेगूसराय कभी नहीं छोड़ा। तनवीर हसन की उम्मीदवारी को नजरंदाज करना हमारे लिए असंभव था। हमारा काडर मजबूत है जो तनवीर हसन को चाहता था। ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम नहीं कर सकते। सबकुछ हमारे कार्यकर्ताओं, लोगों पर निर्भर है। इसलिए, उनकी जगह किसी और को उम्मीदवार बनाना गठबंधन न होने की वजह बना।”
आपको बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनावों में हसन लगभग 55,000 मतों के अंतर से भाजपा के भोला सिंह से हारकर दूसरे स्थान पर रहे थे। भाकपा के राजेंद्र सिंह करीब 1.92 लाख वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे थे। गौरतलब है कि भाकपा की बिहार इकाई के सूत्रों के अनुसार पार्टी नेताओं के एक वर्ग में कन्हैया कुमार को नामित करने और गठबंधन पर समझौता करने को लेकर असंतोष था।