अगर मुसलमानों का वोट चाहिए तो उन्हें हिस्सेदारी दें – राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल

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लखनऊः 2019 लोकसभा चुनावों को लेकर सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा के बाद इसका विरोध भी होने लगा है, मुख्य रूप से मुस्लिम समाज के बुध्दिजीवी, समाजिक व राजनैतिक तबकों की एक बड़ी तादाद में इस बात को लेकर काफी रोष है कि इस गठबंधन में मुसलमानों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व शून्य है।

इसी क्रम में राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना आमिर रशादी ने लखनऊ में एक प्रेस वार्ता कर गठबंधन को मुसलमानों के लिए ‘ठगबंधन‘ करार दिया। प्रेस वार्ता को सम्बोधित करते हुए मौलाना रशादी ने कहाकि, ‘‘सेकुलरिस्म के नाम पर बने इस तथाकथित गठबंधन में सबसे ज़्यादा अगर कोई खुद को ठगा महसूस कर रहा है तो वो मुस्लिम समाज है क्योंकि दशको से मुस्लिम समाज ने परम्परागत तरीके से सपा-बसपा को वोट दिया है और 70 सालों से सेकुलरिज़्म लगातार सेकुलरिस्म की बुनियाद को मजबूत किया है परंतु इस गठबंधन से मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को दूर रखना न केवल सपा-बसपा का मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों के प्रति राजनैतिक दुर्भावना है बल्कि समाजिक न्याय के मूल्यों के भी विरुद्ध है‘‘।

उन्होंने कहाकि 7 प्रतिशत यादव समाज के नेता अखिलेश यादवजी और 11 प्रतिशत जाटव समाज की नेता मायावतीजी आपस में 38-38 सीटों का बंटवारा कर रही है और 22 प्रतिशत मुस्लिम समाज के नेताओं को शून्य हिस्सेदारी देकर मुफ्त में सिर्फ भाजपा का डर दिखा उनका वोट लेना चाहती हैं। मुस्लिम समाज अब राजनैतिक तौर पे जागरूक हो चुका है और खौफ और डर की राजनीति से बाहर आकर अपने राजनैतिक अधिकारों, प्रतिनिधित्व और नेतृत्व के लिए चेत चुका है।

मुसलमानों को अब खैरात में मुस्लिम नाम वाले सपा-बसपा के प्रतिनिधि (MP/MLA) नही चाहिए बल्कि उन्हें मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करने वाले लीडर चाहिए जो उनके समाज के मसलों को सड़क से संसद तक बिना किसी दबाव के उठा सके और उन्हें हल करा सके वरना मुस्लिम MP/MLA तो 2012 में 69 थे फिर भी मुजफ्फरनगर से लिये सैकड़ों दंगे हो गए और सपा-बसपा के पचासों मुस्लिम प्रतिनिधि (MP/MLA) में से कोई भी अपनी आवाज तक नही उठा सका क्योंकि पार्टी नेतृत्व से इजाजत नही थी।

यही नही मौजूदा भाजपा केन्द्र सरकार के द्वारा मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर हमारे शरई मामलों में दखल देते हुए ट्रिपल तलाक पर असंवैधानिक बिल लाने का खुलकर विरोध तक ये तथाकथित सेकुलर दल संसद में न तो खुद कर सके न इनके मुस्लिम नाम वाले लोकसभा/राज्यसभा सांसद कर सके तो ऐसे में इनमे और भाजपा में क्या फर्क रह गया कि भाजपा ने बिल लाया और सपा/बसपा ने उसपे खामोश/अनुपस्थिति रह कर अपनी मौन सहमति देदी। ऐसे हालात में मुसलमानो के पास अपनी आवाज उठाने के लिए केवल उनके अपने नेतृत्व वाले राजनैतिक दल ही विकल्प के रूप में बचते हैं। क्योंकि देश की वर्तमान राजनैतिक परिवेश में हर समाज का कहीं न कहीं अपना राजनैतिक दल है जो उस समाज का प्रतिनिधित्व कर रहा है और उसकी समस्याओं को उठा उनका निदान कराने में प्रयासरत है ऐसे हालात में आज तेजी से प्रदेश और देश का मुसलमान भी अपने नेतृत्व वाले राजनैतिक दलों में विश्वास कर रहा है और ऐसे में सपा-बसपा के इस गठबंधन के द्वारा मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को सिरे से नकार देना कहीं न कहीं इन मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को खत्म करने की साजिश नजर आती है।

ज़ाहिरी तौर पर सपा-बसपा ने ये गठबंधन अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किया है पर कहीं न कहीं भाजपा को रोकने के नाम पर मुसलमानों का वोट भाजपा का डर दिखा एक मुश्त लेकर तेज़ी से उभर रहे मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को अलग-थलग करने के लिए भी किया गया है?। अगर ये सच नही है तो अखिलेशजी और मायावतीजी बताएं कि सच क्या है? आखिर इस गठबंधन में मुसलमानो को जगह क्यों नही है? जबकि बिना गठबंधन के 2 सीट काँग्रेस के लिए छोड़ दी गयी है तो वहीं 2 सीट 1.5 प्रतिशत वोट बेस वाले अन्य दल के लिए छोड़ दी गयी है तो फिर इस हिसाब से संख्या के आधार पर मुस्लिम नेतृत्व वाले दल के लिए 16 सीट बनती थी पर 16 न सही 10 ही छोड़ते पर यहां तो 2 सीट भी मुस्लिम समाज के लीडरों के लिए नही घोषित की गई।

उन्होंने सवाल किया कि, ‘‘ मुस्लिम प्रतिनिधित्व के लिए दोनों दलों के पास क्या मंसूबे हैं? आखिर कब तक मुसलमान इनके सेकुलरिस्म का कुली बन उसे ढोता रहेगा और ये दल उसके सहारे सत्ता का लोभ लेते रहेंगे। अखिलेश यादवजी ने तो 2017 के विधानसभा चुनावों से ही मुसलमानो का नाम अपनी जबान से लेना छोड़ दिया है, गर कहीं बोलना भी होता है तो अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल करते हैं और ये 12 जनवरी की प्रेसवार्ता में भी नज़र आया कि जहां मायावतीजी ने तो मुसलमानों का नाम अपनी ज़बान पर लाया भी परन्तु अखिलेश यादवजी ने हर तबके का नाम अपनी ज़बान पर लिया पर मुसलमानों से परहेज़ किया।

ऐसे में मुसलमान उनसे कैसे और क्या उम्मीद कर सकता है कि अखिलेश यादव मुसलमानों के मुद्दों को प्रखर रूप से उठाने की हिम्मत कर सकेंगे? बसपा 2014 के आम चुनावों में एक भी लोकसभा सीट न जीत सकी और उसके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा, ऐसे हालात में दलित लीडरशिप को बचाए रखने के लिए हमने बाबा साहब अम्बेडकर को संसद में भेजने के लिए मुस्लिम लीग के दिए गए बलिदान के इतिहास को दोहराते हुए 2017 के विधानसभा चुनावों में प्रदेश हित व जनहित में अपने समस्त प्रतयाशीयों को वापस ले बसपा को निस्वार्थ पूर्ण समर्थन का एलान किया था ताकि समाज के सबसे शोषित व वंचित तबके दलित-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम हो सके और राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल के आहवान पर प्रदेश के मुसलमानों का एक बड़ा तबका बसपा के साथ खड़ा रहा और बसपा 19 सीट जीतने में कामयाब रही जिसमे पूर्वांचल की 11 सीटों पर जीत में राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल की निर्णायक भूमिका रही तो वहीं प्रदेश की अन्य जीती हुई सीटों पर भी कौंसिल का महत्वपूर्ण योगदान रहा और 2012 व 2017 विधानसभा चुनावों के आंकड़ें इस बात का जीता जागता सबूत हैं परंतु ये दुःखद है कि मायावतीजी ने प्रदेश के मुसलमानों व उनके नेतृत्व के इस बलिदान को भी नकार दिया और उपरोक्त गठबंधन में मुस्लिम नेतृत्व को प्राथमिकता नही दी।

ऐसे में यह संशय और प्रबल होता है कि सपा-बसपा ने सोची समझी रणनीत के तहत मुस्लिम नेतृत्व वालों दलों को इस गठबंधन से दूर रख उन्हें राजनैतिक तौर पे कमजोर और अलग-थलग करने के साथ ही एक बार फिर से मुस्लिम समाज को सम्पूर्ण रूप से अपना राजनैतिक गुलाम बना उन्हें मात्र वोट बैंक तक सीमित रखने की साजिश की है।

अगर ऐसा नही है तो तत्काल सपा बसपा मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को लेकर अपना मत स्पष्ट करें और अपने इस तथाकथित ‘महागठबंधन‘ में राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल व अन्य मुस्लिम नेतृत्व वाले दलों को प्रतिनिधत्व दें।

वर्णा राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल अपने समाज और शोषित-वंचित, दलित व पिछड़े समाज के लिए लड़ने वाले अन्य दलों तथा समान विचारधारा वाले दूसरे दलों के साथ मिल कर एक नए गठबंधन को खड़ा करेगी जिसके सम्बंध में बात-चीत भी जारी है और देश व प्रदेश को भाजपा व सपा-बसपा के विरुद्ध एक नया विकल्प देगी।

देशहित और जनहित में राष्ट्रीय ओलमा कौन्सिल भी इस बात के हामी हैं कि भाजपा के कुशासन को रोकने का हर सम्भव प्रयास होना चाहिए और ऐसी हर कोशिश के साथ हम हैं और 2014 से लेकर अबतक देश और प्रदेश में हमने सपा-बसपा से ज्यादा सड़कों पर केन्द्र व प्रदेश भाजपा सरकार के विरूध्द प्रदर्शन किया है और भाजपा को रोकने के लिए ही हमने अभी सम्पन्न हुए मध्यप्रदेश और राजस्थान के चुनावों में अपने प्रत्याशी नही उतारे।

परन्तु भाजपा को रोकने के नाम पर डर पैदा कर 20 प्रतिशत की संख्या वाले एक पूरे समाज के राजनैतिक नेतृत्व की हत्या कर दी जाए और उसको राजनैतिक अछूत बना केवल ग़ुलाम की तरह वोट बैंक तक सीमित रख दिया जाए ऐसे किसी भी प्रयास को राष्ट्रीय ओलमा कौन्सिल कतई बर्दाशत नही करेगी चाहे उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े।