इस गाँव में 100 फीसदी हिंदू बच्चे पढ़ते हैं उर्दू, हर घर में मिली हुई है नौकरी

   

जहां एक तरफ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर फिरोज खान के विरोध के बाद भाषा और धर्म को लेकर सवाल उठ रहे हैं। वहीं, दूसरी तरफ जयपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर सिदरा गांव के लोग एक मिसाल पेश कर रहे हैं। यहां के 100 फीसदी हिंदू बच्चे पूरी लगन के साथ उर्दू सीख रहे हैं। इसकी बदौलत इस गांव ने गरीबी पर काबू पा लिया है। यहां पर गांव वालों ने संस्कृत विषय को विद्यालयों से हटाकर उर्दू विषय को चुना है।

जयपुर से 100 किलोमीटर दूर टोंक जिले में सिदड़ा गांव बसा हुआ है। इस गांव में 96 फीसदी आबादी मीना जनजाति की है। यहां के सरकारी विद्यालय में बड़ी तादाद में बच्चे पढ़ते हैं। इसके पीछे का कारण है कि यहां सरकारी उर्दू टीचर की व्यवस्था है। यहां दूर-दूर तक कोई अल्पसंख्यक आबादी नहीं है लेकिन पूरा गांव उर्दू की पढ़ाई में लगा है।

बताया गया है कि तीन साल पहले गांव वालों ने अनुरोध किया कि यहां के विद्यालय से संस्कृत को हटा दिया जाए और इसकी जगह उर्दू को पढ़ाया जाए। इसके पीछे का कारण भी बेहद दिलचस्प है यहां की 2500 आबादी को उर्दू ने रोजगार की गारंटी दी है। गांव में करीब हर घर में एक व्यक्ति को उर्दू की बदौलत सरकारी नौकरी मिली है।इस गांव में हर एक बच्चे पूरी लगन के साथ उर्दू सीख रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि इनमें ज्यादातर तादाद लड़कियों की है। ऐसी ही एक छात्रा ने बताया कि उसे इस भाषा से प्रेम है क्योंकि यह बेहद ही प्यारी भाषा है, उसने कहा कि वह इसे पढ़कर लेक्चरार बनना चाहती हैं। वहीं, एक दूसरी छात्रा ने बताया कि उसके यहां उर्दू पढ़ाने के लिए ट्यूशन अध्यापक आते है। उन्होंने बताया कि हमारे माता-पिता भी उर्दू पढ़ने में हमारी मदद करते हैं।

पहले इस सरकारी विद्यालय में संस्कृत पढ़ाई जाती थी लेकिन अब गांव के सभी बच्चों ने बारहवीं के बाद ऑप्शनल विषय के तौर पर संस्कृत की जगह उर्दू को चुना है। बच्चों को उर्दू की ऐसी ललक है कि ये एक्सट्रा क्लासेज करके भी इसकी पढ़ाई करते हैं।

दूसरी ओर सरकार केवल अल्पसंख्यक आबादी के दायरे में स्थापित विद्यालयों में ही उर्दू की व्यवस्था करती है जिस कारण इन बच्चों को बचपन से उर्दू पढ़ने को नहीं मिल रहा है। छात्र सिर्फ 11वीं और 12वीं में उर्दू पढ़ पा रहे है। दूसरी ओर इन छात्रों को इस विषय पर अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। छात्र मांग कर रहे है कि इन्हें प्राथमिक विद्यालय से ही उर्दू पढ़ाई जाए।

उर्दू बनी भरण पोषण की भाषा

इस विद्यालय के प्रधानाध्यापक बीरबल मीणा हैं, उन्होंने बताया कि इस गांव में उर्दू भरण पोषण की भाषा बन गई है इसलिए गावं इस भाषा को किसी संप्रदाय के नजर से नहीं देखता है।

इस विषय पर गांव के लोगों का कहना है कि उर्दू किसी संप्रदाय या देश की भाषा नहीं लगती है। ये बेहद प्यारी भाषा है और हमें रोजगार के अवसर भी दे रही है। गांव वालों ने बताया कि पहले उर्दू की अनुसूचित जनजाति की सीटें खाली रह जाती थी लेकिन अब ये गांव अकेले इन सीटों को भरने लगा है।

छठी कक्षा से उर्दू पढ़ाई की हो व्यवस्था
गांव के ही रहने वाले एक व्यक्ति ने बताया कि हम सरकार से मांग कर रहे है कि इस विद्यालय में छठी कक्षा से उर्दू की पढ़ाई की व्यवस्था की जाए क्योंकि सरकार के पास नियम नहीं है कि किसी हिंदू बहुल इलाके में प्राथमिक विद्यालय में उर्दू के टीचर रखे जाएं। हम सरकार से लगातार इस नियम को बदलने की मांग कर रहे हैं।

गांव में अभी तक 100 से ज्यादा लोगों की मेडिकल, भाषा, शिक्षा और समाज कल्याण विभाग में नौकरी लगी है। दूर-दराज इस गांव में बेरोजगारी की समस्या से निपटने के लिए यह बेहतरीन रामबाण निकाला है जिसके इस गांव की पूरी तस्वीर ही बदल गई है।

ऐसे शुरू हुआ गांव का उर्दू से लगाव 
छह साल पहले गांव के एक शख्स की नजर सरकारी नौकरी की भर्ती पर गई। जहां उसने देखा कि उर्दू जानने वाले नौकरियों में अनुसूचित जनजाति के लोगों की सीटें खाली रह जा रही है। जिसके बाद वह शहर गया और उर्दू सीख कर लेक्चरार की नौकरी हासिल की। उसके बाद पूरे गांव के लोगों ने बेरोजगारी से निपटने के लिए इस तरीके को अपनाना शुरू कर दिया।