गांधी से समकालीन भारत क्या सीख सकता है

   

आज दुनिया के किसी भी देश में शांति मार्च का निकलना हो अथवा अत्याचार व हिंसा का विरोध किया जाना हो, या हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जाना हो, ऐसे सभी अवसरों पर पूरी दुनिया को गांधीजी की याद आज भी आती है और हमेशा आती रहेगी। अत: यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि गांधीजी, उनके विचार, उनके दर्शन तथा उनके सिद्घान्त कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं तथा रहती दुनिया तक सदैव प्रासंगिक रहेंगे।

गांधी के जीवनकाल में लगातार उनकी हत्या की कोशिश होती रही थी – दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक। 30 जनवरी 1948 से पहले भारत में उनकी हत्या की पांच कोशिशें हुई थीं – 1934, 1944 में दो बार, 30 जनवरी 1946 और 20 जनवरी 1948। 30 जनवरी 1946 को बच जाने के बाद अपनी प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा था – ‘मैं सात बार इस प्रकार के प्रयासों से बच गया हूं। मैं इस प्रकार मरने वाला नहीं हूं। मैं तो 125 साल जीने वाला हूं।’

नाथूराम गोडसे ने मराठी अखबार ‘अंग्रणी’ में लिखा था – परन्तु आपको जीने कौन देगा ?’ 20 जनवरी 1948 को बिड़ला भवन की प्रार्थना सभा में मदलाल पाहवा ने उन पर बम फेंका था। इस घटना के मात्र दस दिन बाद नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना सभा में उनकी हत्या कर दी। गांधी की हत्या एक व्यक्ति मात्र की हत्या न होकर उन आदर्शों, सिद्धान्तों, विचारों और स्वप्नों की हत्या थी जिनका आज भारत का शासक वर्ग गुणगान कर रहा है। उनकी हत्या सत्य, अहिंसा, मानवता, सादगी, स्वच्छता, चारित्रिक गुण, साम्प्रदायिक सदभाव की भी हत्या थी।

वैश्विक स्तर पर व्याप्त हिंसा, मतभेद, बेरोजगारी, महंगाई तथा तनावपूर्ण वातावरण में आज बार-बार यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि गांधी के सत्य व अहिंसा पर आधारित दर्शन और विचारों की आज कितनी प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। यूं तो गांधीवाद का विरोध करने वालों ने जिनमें दुर्भाग्यवश और किसी देश के लोग नहीं बल्कि अधिकांशतय: केवल भारतवासी ही शामिल हैं, ने गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को तब भी महसूस नहीं किया था जबकि वे जीवित थे। गांधी से असहमति के इसी उन्माद ने उनकी हत्या तो कर दी परन्तु आज गांधी के विचारों से मतभेद रखने वाली उन्हीं शक्तियों को भली-भांति यह महसूस होने लगा है कि गांधी अपने विरोधियों के लिए दरअसल जीते जी उतने हानिकारक नहीं थे जितना कि हत्या के बाद साबित हो रहे हैं। और इसकी वजह केवल यही है कि जैसे-जैसे विश्व हिंसा, आर्थिक मंदी, भूख, बेरोजगारी और नफरत जैसे तमाम हालात में उलझता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनिया को न केवल गांधी के दर्शन याद आ रहे हैं बल्कि गांधीदर्शन को आत्मसात करने की आवश्यकता भी बड़ी शिद्दत से महसूस की जाने लगी है। गांधी आज क्यों याद आ रहे हैं और गांधीवाद की प्रासंगिकता क्यों महसूस की जा रही है, इसके लिए हमें इतिहास की हाल की कुछ घटनाओं पर नजर डालनी होगी।

दरअसल सर्वधर्म सम्भाव की जीती जागती तस्वीर समझे जाने वाले गांधी जी मानते थे कि हिंसा की बात चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न की जाए, परन्तु वास्तविकता यही है कि हिंसा किसी भी समस्या का सम्पूर्ण एवं स्थायी समाधान कतई नहीं है। जिस प्रकार आज के दौर में आतंकवाद व हिंसा विश्व स्तर पर अपने चरम पर दिखाई दे रही है तथा चारों ओर गांधी के आदर्शों की प्रासंगिकता की चर्चा छिड़ी हुई है, ठीक उसी प्रकार गांधीजी भी अहिंसा की बात उस समय करते थे जबकि हिंसा अपने चरम पर होती थी।

अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। हालांकि वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। परन्तु श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में कर्म के सिद्घान्त का जो उल्लेख किया गया है, उससे वे अत्यधिक प्रभावित थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के इस अति प्रचलित वाक्यङक्त -‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर’ की व्याख्या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्याख्या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है।