रमज़ान में ज़ंग की तैयारी, दो मुस्लिम देश आपस में लड़ने को तैयार!

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अश्शर्कुल औसत अख़बार ने एक ख़बर प्रकाशित की कि सऊदी अरब तथा फ़ार्स खाड़ी सहयोग परिषद के कुछ अन्य सदस्य देशों ने सहमति जता दी है कि उनकी धरती और समुद्री क्षेत्रों पर अमरीका अपने सैनिकों को पुनः तैनात कर सकता है।

पार्स टुडे डॉट कॉम के अनुसार, अरब देशों ने यह सहमति अमरीका के साथ इन देशों के समझौते के तहत दी है। यह बात साफ़ है कि अख़बार में यह गुप्त रिपोर्ट जान बूझ कर लीक की गई है और ख़बर लीक करने में सऊदी अरब के अधिकारी शामिल हैं।

अख़बार ने यह भी लिखा है कि पवित्र महीने रमज़ान के अंतिम दस दिनों के दौरान पवित्र नगर मक्का में इस्लामी देशों की बैठक के अवसर पर अरब देशों की भी एक शिखर बैठक होगी। इसका मतलब यह है कि अरब देश उस सुन्नी अरब नैटो की बैठक का आयोजन करना चाहते हैं जो ईरान के ख़िलाफ़ अमरीका और इस्राईल के किसी भी संभावित युद्ध में अमरीका का साथ देगा।

शायद यह कहना समय से पहले होगा कि इस शिखर बैठक मे कौन कौन से नेता शामिल होंगे लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि सऊदी अरब, इमारात बहरैन, जार्डन, कुवैत और ओमान के राष्ट्राध्यक्ष इसमें शामिल हो सकते हैं जबकि मिस्र के राष्ट्रपति अस्सीसी का इस बैठक में नज़र आना मुश्किल है क्योंकि अनौपचारिक रिपोर्टों के अनुसार उन्होंने अपनी पिछली वाशिंग्टन यात्रा में अमरीका को सूचित कर दिया था कि उनका देश सुन्नी अरब नैटो का हिस्सा नहीं बनना चाहता जिसका गठन अमरीका ईरान के ख़िलाफ़ युद्ध में प्रयोग करने के लिए कर रहा है।

वैसे एक बात यह भी है कि उन्होंने अबू धाबी के क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन ज़ाएद की हालिया मिस्र यात्रा में कहा था कि फ़ार्स खाड़ी की सुरक्षा मिस्र की सुरक्षा है। इसलिए इस बात की संभावना है कि अस्सीसी ने अपनी पिछली राय बदल ली हो।

इमारात की अलफुजैरा बंदरगाह पर और सऊदी अरब के भीतर दो तेल प्रतिष्ठानों पर होन वाले हमले के बाद फ़ार्स खाड़ी के इलाक़े में हालात और भी अस्पष्ट हो गए हैं। ईरान के सुप्रीम कमांडर आयतुल्ला ख़ामेनाई और अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प दोनों ने कहा कि वह युद्ध नहीं चाहते और इसके लिए कोशिश भी नहीं कर रहे हैं। यदि यह बात है तो फिर जंग कौन चाह रहा है?

तीन पक्ष हैं जो इस युद्ध के लिए हाथ पांव मार रहे हैं। एक तो अमरीका है जहां माइक पोम्पेयो, जान बोल्टन और जेयर्ड कुशनर जंग के लिए बहुत उतावले हो रहे हैं और दूसरा पक्ष अरब देशों का है जिसमें सऊदी अरब और इमारात शामिल हैं। तीसरा पक्ष इस्राईल है।

यदि युद्ध की आग भड़की तो यह निश्चित रूप से एक क्षेत्रीय जंग होगी। इस में एक तरफ़ इस्लामी प्रतिरोधक मोर्चा होगा और दूसरी ओर अमरीका तथा उसके अरब घटक देश होंगे। मगर इस युद्ध के ख़तरों का स्तर अंतर्राष्ट्रीय होगा अर्थात इसका असर सारी दुनिया पर पड़ेगा। इसका कारण यह है कि यह इलाक़ा विश्व अर्थ व्यवस्था में बड़ी महत्वपूर्ण पोज़ीशन रखता है। इसी इलाक़े के तेल और गैस पर दुनिया की अनेक अर्थ व्यवस्थाएं निर्भर हैं। युद्ध होने की स्थिति में ऊर्जा के अधिकतर मैदानों को नुक़सान ज़रूर पहुंचेगा। इसलिए कि उन पर मिसाइल ज़रूर गिरेंगे।

हमें यक़ीन है कि ईरान और उसके घटकों को अच्छी तरह पता है कि अमरीका की सैनिक शक्ति का दायरा कितना पड़ा है। उन्हें यह भी पता है कि उनकी लड़ाई सुपर पावर से है। मगर हमें जिस बारे में गहरा शक है वह यह है कि राष्ट्रपति ट्रम्प को ईरान और उसके घटकों की ताक़त की पूरी जानकारी है या नहीं। हमें इसमें भी शक है कि ट्रम्प को यह पता होगा कि युद्ध होने की स्थिति में उनके समुद्री बेड़ों, विमान वाहक पोत और सैनिक छावनियों को कितना बड़ा नुक़सान पहुंच सकता है। अमरीका के अरब घटकों और उनके शहरों तथा अर्थ व्यवस्थाओं को जो नुक़सान पहुंचेगा उसकी तो बात ही अलग है।

जब कुवैत पर इराक़ की सद्दाम सरकार ने हमला किया तो कुवैत के तेल के कुंओं में आग लगा दी और उसे बुझाने में एक साल का समय लग गया था। इस बार यदि लड़ाई होती है तो पूरे इलाक़े के तेल के कुओं में आग लग जाएगी।

ट्रम्प की रणनीति है कि अपने विरोधी को भयभीत करने के लिए सारे संसाधनों और हथकंडों को प्रयोग किया जाए ताकि वह डरकर वार्ता की मेज़ पर बैठ जाए और अमरीका की मांगों के सामने घुटने टेक दे। यह रणनीति तीन देशों वेनेज़ोएला, उत्तरी कोरिया और चीन के संदर्भ में पूरी तरह नाकाम रही और अब एक बार फिर ईरान के बारे में इस रणनीति की पराजय होने जा रही है।