जानिए, कैसे पैदा हुई ईरान- अमेरिका में दुश्मनी?

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ईरान और अमेरिका पहले दोस्त थे. इनकी दोस्ती का अंत हुआ ईरानी क्रांति से. क्रांति का जो नायक था, उसके दादा भारत के उत्तर प्रदेश से चलकर ईरान गए थे. जब वह क्रांति कर रहा था तो उसे भारतीय मुल्ला और ब्रिटिश एजेंट कहा गया.

10,169 किलोमीटर. ये दूरी है ईरान की राजधानी तेहरान और अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन के बीच. इन दोनों शहरों के बीच अगर आप फ्लाइट से यात्रा करेंगे तो करीब 14 घंटे में पहुंच पाएंगे.

इन दोनों देशों की सीमा ना तो भारत-पाकिस्तान की तरह लगती है और ना ही अब विश्वयुद्ध से पहले कुछ देशों की अपनाई विस्तारवादी नीतियां चल रही हैं. तो फिर इन दोनों देशों के बीच विवाद किस बात का है.

यह विवाद मध्यपूर्व को एक और युद्ध की तरफ ले जा सकता है. क्या है इन दोनों देशों के दोस्त से दुश्मन बनने की कहानी, समझते हैं.

ये कहानी शुरू होती है 20वीं सदी में हुए दो विश्वयुद्धों के दौरान. इन दोनों विश्वयुद्धों के बीच के समय में ही मिडिल ईस्ट के देशों में कच्चे तेल के बड़े भंडार मिले. दुनिया के सबसे बड़े शिया बहुल देश ईरान में भी कच्चे तेल के भंडार मिले.

ब्रिटेन की एंग्लो-फारसी ऑइल कंपनी ने ईरान में मिले तेल को निकालने का जिम्मा उठाया. 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हुआ. ईरान में पहलवी राजवंश का शासन चल रहा था. ईरान में लोकतंत्र और राजतंत्र की लुकाछिपी चलती आ रही थी.

1949 में ईरान में नया संविधान लागू हुआ. उस समय ईरान के राजा थे मोहम्मद रजा शाह पहलवी. नए संविधान के बावजूद कोई भी प्रधानमंत्री दो चार महीने से ज्यादा नहीं टिक पा रहा था. 1952 में देश के प्रधानमंत्री बने मोहम्मद मोसद्दिक.

वह ईरान की तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे. इस चाहत पर ब्रिटेन और ईरान आमने सामने आ गए. ब्रिटेन ने कहा कि कंपनी हमारी है और ईरान ने कहा, तेल हमारा है.

1953 में मोसद्दिक का तख्तापलट हो गया, जिसमें विश्वयुद्ध के दौर में ब्रिटेन के घनिष्ठ दोस्त बने अमेरिका और ब्रिटेन का हाथ था. इस तख्तापलट के बाद प्रधानमंत्री के पद की अहमियत कम हो गई और मोहम्मद रजा शाह पहलवी देश के सर्वेसर्वा बन गए.

लेकिन चुने गए प्रधानमंत्री का तख्तापलट ईरान की जनता को पसंद नहीं आया. रजा पहलवी जनता की आंखों में पूरी तरह अमेरिका की कठपुतली बन गए थे.

आयतोल्लाह रुहोल्लाह खौमेनी इस्लामिक नेता थे. वह शाह के मुखर विरोधी थे. लेकिन असली कहानी शुरू हुई 1963 में, जब मोहम्मद रजा शाह पहलवी ने श्वेत क्रांति का एलान किया. ये एक छह सूत्री कार्यक्रम था.

ये सुधार पश्चिम की नीतियों पर आधारित थे. इन सुधारों का विरोध होने लगा. खौमेनी इस विरोध की अगुवाई कर रहे थे. 1964 में शाह ने खौमेनी को देश निकाला दे दिया.

शाह पहलवी पश्चिमी नेताओं के साथ कई बार पार्टियां करते थे. ऐसी एक पार्टी को खौमेनी ने शैतानों की पार्टी कहा था. 1973 में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी कमी हुई.

ईरान की अर्थव्यवस्था और शाह की श्वेत क्रांति के ख्वाब चरमरा गए. मौलवियों ने इस दौरान श्वेत क्रांति को इस्लाम पर चोट कहा. मौलवियों को खौमेनी निर्देश दे रहे थे.

अयोतुल्लाह खौमेनी के दादा सैय्यद अहमद मसूवी हिंदी उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के रहने वाले थे. 1830 के दशक में अवध के नवाब के साथ वह एक धार्मिक यात्रा पर इराक गए और ईरान के खुमैन गांव में बस गए. इसलिए एक पीढ़ी बाद उनका सरनेम खौमेनी हो गया.

1978 में ईरान के सरकारी अखबार में खौमेनी को ईरान सरकार ने “भारतीय मुल्ला” और “ब्रिटेन का एजेंट” लिखा. उन्हें आशिकाना “गजलों में खोया रहने वाला बुड्ढा” कहा गया. इस लेख के छपने के बाद ईरान की जनता भड़क गई.

सितंबर 1978 में तेहरान के शाहयाद चौक पर लाखों लोग इकट्ठा होकर शाह के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे. शाह ने आक्रोश को दबाने के लिए मार्शल लॉ लागू किया. जनवरी 1979 तक ईरान में गृहयुद्ध के हालात हो गए. प्रदर्शनकारी खौमेनी का निर्वासन खत्म करने की मांग करने लगे.

16 जनवरी 1979 को शाह परिवार समेत ईरान छोड़ अमेरिका चले गए. शाह ने भागने से पहले विपक्षी नेता शापोर बख्तियार को प्रधानमंत्री बना दिया था.

नए प्रधानमंत्री ने खौमेनी को वापस आने की इजाजत दे दी. 12 फरवरी 1979 को खौमेनी फ्रांस से ईरान लौटे. लाखों की भीड़ ने उनका स्वागत किया.

खौमेनी ने बख्तियार सरकार को मानने से इंकार कर दिया और ऐलान किया कि वह सरकार बनाएंगे. 16 फरवरी को उन्होंने मेहदी बाजारगान को नया प्रधानमंत्री घोषित किया.

देश में दो प्रधानमंत्री हो गए थे. ईरान की वायुसेना ने खौमेनी को अपना नेता मान लिया. 20 फरवरी को शाह समर्थक इंपीरियल गार्ड्स और वायुसेना के बीच आपस में युद्ध हो गया. शाह समर्थक सेना हार गई.

अप्रैल 1979 में एक जनमत संग्रह करवाया गया. इसके बाद ईरान को इस्लामी गणतंत्र घोषित किया गया. एक सरकार चुनी गई और खौमेनी को देश का सर्वोच्च नेता चुना गया. प्रधानमंत्री के पद की जगह राष्ट्रपति का पद आ गया.

इस क्रांति के साथ अमेरिका का ईरान से प्रभाव एकदम खत्म हो गया. शाह के समय दोस्त रहे दोनों देश अब दुश्मन बन गए थे. ईरान और अमेरिका ने आपस में राजनयिक संबंध खत्म कर लिए. तेहरान में ईरानी छात्रों के एक समूह ने अमेरिकी दूतावास में 52 अमेरिकी नागरिकों को बंधक बना लिया.

इन लोगों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर से शाह को वापस ईरान भेजने की मांग की. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जुलाई 1980 में मिस्र में शाह की मौत हो गई.

1981 में रोनाल्ड रीगन के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने पर 444 दिनों बाद इन बंधकों को छोड़ा गया. 1980 में सद्दाम हुसैन की सत्ता वाले इराक ने इस्लामिक क्रांति के डर से ईरान पर हमला कर दिया.

अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने इस लड़ाई में इराक का साथ दिया आठ साल तक हुई इस लड़ाई में इराक को नुकसान झेलना पड़ा और एक समझौते के साथ यह युद्ध खत्म हुआ. खौमेनी अब और लोकप्रिय हो गए और अमेरिका से दुश्मनी और पक्की हो गई.

ये दुश्मनी 1988 में और तीखी हो गई. ईरान एयर का यात्री विमान जो तेहरान से दुबई जा रहा था, उसे अमेरिकी नौसेना ने मार गिराया. इसमें 290 लोग सवार थे.

इनमें से 10 भारतीय थे. मिसाइल हमले का शिकार हुए इस विमान में मौजूद सभी लोग मारे गए. अमेरिका ने कहा कि उन्हें लगा कि ये लड़ाकू जहाज एफ-14 है.

इसलिए गलती से इसे गिरा दिया. लेकिन अमेरिका ने इस गलती के लिए ईरान से कभी माफी नहीं मांगी. मामला अंतरराष्ट्रीय अदालत में गया. अमेरिका ने वहां भी आधिकारिक रूप से माफी नहीं मांगी. अंतरराष्ट्रीय कोर्ट ने अमेरिका को सभी मृतकों के परिजनों को मुआवजा देने का आदेश दिया.

ईरान-इराक युद्ध के बाद ईरान का अगला फोकस परमाणु बम बनाने पर हो गया. 1989 में खौमेनी का निधन हुआ और उनके निधन के बाद 1981 से 1989 तक राष्ट्रपति रहे अली खमनेई सर्वोच्च नेता बन गए.

1991 में कुवैत पर हमले के बाद इराक और अमेरिका आमने सामने आ गए. इस दौरान ईरान ने इराक का समर्थन किया. अमेरिका ने इराक में सेना भेज दी. और एक लंबा युद्ध शुरू हुआ. अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने 2002 में ईरान, इराक को ‘एक्सिस ऑफ एविल’ यानी बुराई की धुरी कहा. अमेरिका ने ईरान की सरकार पर आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाया.

2002 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम का दुनिया को पता चला. इसके बाद अमेरिका ने ईरान पर तमाम प्रतिबंध लगा दिए. प्रतिबंधों से ईरान पर आर्थिक दबाव आने लगा. ईरान और यूरोपीय संघ में इसको लेकर बातचीत होने लगी.

2005 से 2013 तक ईरान के राष्ट्रपति रहे महमूद अहमदीनेजाद इस स्थिति का सामना करते रहे. 2013 में सत्ता उनके हाथ से निकलकर हसन रोहानी के हाथ में आ गई. रोहानी ने नए सिरे पर परमाणु कार्यक्रम पर बात करना शुरू किया.

2015 में अमेरिका समेत पश्चिम देशों और ईरान के बीच में परमाणु कार्यक्रम पर एक समझौता हुआ. इस समझौते के बाद लगा कि दोनों देशों की दशकों से चली आ रही दुश्मनी अब खत्म हो गई. ईरान से कई आर्थिक प्रतिबंध हट गए.

लेकिन 2016 में अमेरिका में सत्ता बदल गई. डॉनल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनते ही ओबामा के दौर में हुए ईरान समझौते को एकतरफा कार्रवाई करते हुए रद्द कर दिया.

 

साभार- डी डब्ल्यू