सपा-बसपा के बीच शनिवार को हुए गठबंधन ने 1993 में दोनों के मध्य हुए गठबंधन की यादें फिर से जीवंत कर दी है। उद्देश्य वहीं पुराना है बीजेपी को हराना है। 1993 में समय बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने के लिए यह गठबंधन मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के बीच हुआ था। इस बार भी उसी उद्देश्य के साथ अखिलेश और मायावती ने समझौता किया है।
1993 में सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और बसपा संस्थापक कांशीराम के बीच प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन हुआ था। गठबंधन ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी, बीजेपी से एक सीट कम पाने के बाद भी दोनों दलों ने बीजेपी को सत्ता से दूर रोक दिया था। शनिवार को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती ने 2019 लोकसभा चुनाव के लिए पुराने गिले शिकवे भुलाकर फिर से एक साथ आने की घोषणा कर 1993 की पटकथा को दोहरा दिया है। इस बार समझौते में सीटें बराबर हैं। एक दूसरे का सम्मान करने का वादा भी है।
बिछड़ गए हैं 1993 के गठबंधन के अहम नेता
1993 में सपा-बसपा गठबंधन के दौरान मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के करीबी रहे नेता इस बार के गठबंधन में सक्रिय नहीं रहे। उस समय कांशीराम के करीबी रहे दलित नेता राज बहादुर मौजूदा समय में कांग्रेस में हैं। राजबहादुर बसपा के संस्थापकों में रहे हैं। बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे हैं, 1993 की साझा सरकार में कैबिनेट मंत्री भी थे। आरके चौधरी ने बसपा से हटने के बाद लंबे समय तक अपनी पार्टी चलाई, अब उन्होंने अपनी पार्टी का मर्जर सपा में कर दिया है। कभी बसपा प्रमुख मायावती के खासम-खास रहे दीनानाथ भास्कर इस समय बीजेपी से विधायक हैं। डा. मसूद अहमद रालोद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। वहीं 1993 के गठबंधन में मुलायम सिंह के करीबी रहे पूर्व विधानसभा अध्यक्ष धनीराम वर्मा का निधन 2012 में हो चुका है। अन्य दो अहम सहयोगी बेनी प्रसाद वर्मा और बलराम यादव अब भी सपा में बने हुए हैं। बलराम सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के भी करीबी नेताओं में शुमार हैं।
गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव ने दिखाई राह
2017 विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद दोनों दलों के लिए गठबंधन की प्रयोगशाला गोरखपुर और फूलपुर संसदीय सीट का उपचुनाव बना। दोनों दल साथ आए और बीजेपी से दोनों सीटें जीत ली। इसके बाद कैराना लोकसभा चुनाव में रालोद को अपना प्रत्याशी देकर सपा ने यह सीट भी भाजपा से जीत ली।
(साभार: लाइव हिंदुस्तान)